जनसत्ता

मार्च 12, 2008

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समाजवादी जॉर्ज पर इजरायली मिसाइल


समाजवादी जॉर्ज पर इजरायली मिसाइल
आलोक तोमर
ईमानदारी की प्रतिमा और समाजवाद के प्रतीक कहे जाने वाले जॉर्ज फर्नांडीज पर अलग-अलग तरीकों और अलग-अलग कोनों से वार होते ही रहे हैं, लेकिन इस बार हमला मिसाइल का है। मिसाइल का यह हमला अरब सागर के किनारे से निकल कर गंगा के किनारे बिहार में जा कर राजनीति करने वाले जॉर्ज फर्नांडीज का बिहार में अस्तित्व साफ कर देने वाला है। इसीलिए नहीं कि वास्तव में उन्होंने रिश्वत ली थी, जैसा कि आरोप है, बल्कि इसीलिए कि यह आरोप उन पर लगा, उन्होंने नैतिकता का अभिनय करते हुए फटाक से मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया और कुछ दिन बाहर रहने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी की कृपा से वापस देश के रक्षा मंत्री बन गए।

जॉर्ज फर्नांडीज और उनकी सहेली जया जेटली के अलावा इस कांड में और भी अभियुक्त हैं और इनमें से सबसे चौंका देने और चमका देने वाले नाम नौसेना के अध्यक्ष रहे एडमिरल सुशील कुमार नंदा, उनके बेटे सुरेश नंदा और उनके भी बेटे संजीव नंदा के हैं। संजीव नंदा की किस्मत तो कुछ ज्यादा ही खराब है। वे अपने जन्मदिन से ठीक पहले हुई एक पार्टी के बाद देर रात हथियारों की दलाली से हुई काली कमाई से खरीदी गई बीएमडब्लू कार से आठ लोगों को कुचल कर मार डालने के मामले में अदालत का सामना कर ही रहे थे और 75 लाख की जमानत पर बाहर थे कि आयकर अधिकारियों को रिश्वत देने के आरोप में फिर अंदर पहुंच गए।

जॉर्ज फर्नांडीज चूंकि बडे अादमी हैं इसीलिए अभी तक उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई और उन तक हथकड़ियां पहुंचना तो दूर, यह लिखने तक उनसे किसी किस्म की कोई सरकारी पूछताछ भी नहीं की गई। सीबीआई इस दलाली की जांच कर रही है और उसकी शब्दावली में प्राथमिक रपट तैयार हो चुकी है और एफआईआर दाखिल होना बाकी था। 9 अगस्त, 2006 को एफआईआर ही दाखिल कर दी गई। मजदूरों और किसानों के नेता और समाजवाद के स्वयंभू प्रवक्ता और देश के भूतपूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज देश की नौसेना के भूतपूर्व अध्यक्ष सुशील कुमार नंदा के साथ भ्रष्टाचार और षड़यंत्रपूर्वक देश का पैसा हजम करने के अभियुक्त हैं।

जॉर्ज बूढ़े हो चुके हैं और हो सकता है कि अगला लोकसभा चुनाव वे इसी बहाने न लड़ने का फैसला करें कि उन पर इल्जाम है। हालांकि राजनीति में इस बात की संभावना बहुत कम होती है। आखिर शिबू सोरेन से ले कर शहाबुद्दीन और पप्पू यादव तक चुनाव लड़ते ही रहे हैं और जीतते भी रहे हैं। लेकिन जॉर्ज फर्नांडीज ने राजनीति में और खास तौर पर अपने जनता दल यूनाइटेड में नेतृत्व का नैतिक अधिकार सिरे से खो दिया है। उसे दोबारा अर्जित करना असंभव नहीं तो, दुर्लभ जरूर है।

इस घपले की जांच के लिए जनवरी, 2003 में न्यायमूर्ति एस एन फूकन के नेतृत्व में एक आयोग बैठा था और उसी की रपट पर सीबीआई अमल कर रही है। इसके पहले इस आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति वेंकटस्वामी बनाए गए थे, मगर अज्ञात कारणों से उन्हें हटा दिया गया। जॉर्ज फर्नांडीज जाहिर है कि दो न्यायमूर्तियों और देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी के घेरे में हैं और यह घेरा इसीलिए और जटिल हो जाता है क्योंकि जब बराक मिसाइलें खरीदी जा रही थीं, तब सेना के शोध और विकास संगठन डी आर डी ओ के मुखिया एपीजे अब्दुल कलाम थे। उन्होंने इस खरीद का विरोध किया था। विचित्र बात यह है कि जिस व्यक्ति को देश के सर्वोच्च पद पर बिठाने में भाजपा दूसरी बार भी विचार नहीं किया, उसी की राय को सीबीआई के दस्तावेजों में अब तक शामिल नहीं किया गया है। वैसे यह पूरा मामला ज्यादा शर्मनाक इसीलिए भी है क्योंकि देश का रक्षा मंत्री, देश का नौसेना अध्यक्ष और देश के एक भूतपूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह का नाम भी इसमें आता रहा है। नटवर सिंह कांग्रेस में जरूर थे, लेकिन जॉर्ज फर्नांडीज का कहना है कि बराक मिसाइल कंपनी के कारोबारी दूतों से उन्हें नटवर सिंह ने ही मिलवाया था। उनका यह भी कहना है कि मैं तो सबसे मिलने के लिए तैयार रहता हूं और मेरे घर के दरवाजे कभी बंद नहीं होते। इस भोलेपन पर फिदा होने का मन करता है। गनीमत है कि जॉर्ज फर्नांडीज महिला नहीं हुए, वरना सनातन गर्भवती रहते!

सीबीआई की एफआईआर के अनुसार अक्टूबर, 1998 में सुरेश नंदा एक एजेंट की हैसियत से जया जेटली और समता पार्टी के कोषाध्यक्ष आर के जैन से जॉर्ज फर्नांडीज के बंगले पर ही मिले थे, जिसके दरवाजे कभी बंद नहीं होते। एफआईआर के अनुसार सुरेश नदां ने जैन को एक करोड़ रुपए दिए थे, जो उसने मंजूर भी किया है। लेकिन एफआईआर के अनुसार ये पैसे जॉर्ज फर्नांडीज को बराक के हित में खुश करने के लिए उनकी सहेली जया जेटली को सौंप दिए गए थे। यहां तक तो एफआईआर में वही लिखा है, जो तहलका के खुलासे में आ चुका था। एफआईआर में नई बात यह है कि एक वरिष्ठ रक्षा अधिकारी द्वारा 2 नवंबर, 1998 को जॉर्ज फर्नांडीज को लिखा गया एक पत्र मौजूद है, जिसमें बराक मिसाइलों को नौसेना के बेड़े में शामिल नहीं करने की अपील की गई थी।

26 नवंबर, 1998 को नौसेना मुख्यालय में रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार के तौर पर भी काम कर रहे श्री कलाम को पत्र लिख कर पूछा कि बराक मिसाइलों के आयात में इतनी देरी क्यों हो रही है? इसका जवाब श्री कलाम ने 20 जनवरी, 1999 को दिया और उसमें लिखा था कि 3 अक्टूबर, 1997 को ही सुरक्षा मामलों संबंधी मंत्रिमंडलीय समिति की बैठक में हुए फैसले के हिसाब से बेहतर मिसाइल तंत्र प्राप्त करने का फैसला किया जाएगा। इसमें यह भी कहा गया था कि त्रिशूल मिसाइलें भारत बना रहा है और उससे बहुत उम्मीदें हैं। हालांकि अब त्रिशूल परियोजना रद्द कर दी गई है। कलाम के जवाब के बावजूद जॉर्ज फर्नांडीज के दोस्त दलालों के दबाव में नौसेना मुख्यालय ने फिर लिखा कि फैसला होता रहेगा, लेकिन मोल भाव समिति बना कर उसकी बैठकें शुरू कर देनी चाहिए।

बेटा दलाल था और पिता जी नौसेना के अध्यक्ष थे। एडमिरल सुशील नंदा ने 15 जनवरी, 1999 को प्रस्ताव रखा कि कम-से-कम दो मिसाइलों का आयात कर ही लिया जाए। 23 जून, 1999 को श्री कलाम ने इस प्रस्ताव को बेहुदा बताया। कलाम का तर्क था कि अब तक आयात किए गए रक्षा उपकरणों में से पचास प्र्रतिशत बेकार साबित हुए हैं और अगर बराक इजरायल से आयात की ही जाती है, तो उसके पुर्जों के लिए भी भारत को इजरायल के सामने बंधक बनना पड़ेगा। मतलब था-साफ इनकार। एडमिरल नंदा कहां मानने वाले थे? उन्होंने 25 जून, 1999 को ही यानी सिर्फ अड़तालीस घंटे में कलाम से मुलाकात की और नया प्रस्ताव दिया कि नौसेना मुख्यालय ने 1996 में ही बराक मिसाइलों को आयात करने की अनुमति दे दी थी। उस समय रक्षा मंत्री मुलायम सिंह यादव थे और उन्होंने इस संबंध में भेजे गए पत्र का जवाब भी नहीं दिया था। कलाम से मिल कर नंदा जॉर्ज फर्नांडीज के पास पहुंचे और 28 जून, 1999 को उन्होंने कलाम की राय टाल कर बराक के आयात की अनुमति दे दी। अगर आप गौर करें तो कुल पांच दिनों में चार सौ करोड़ का यह घपला संभव हो गया।

तत्कालीन रक्षा सचिव टी आर प्रसाद ने इसके बावजूद 30 अगस्त, 1999 को माननीय रक्षा मंत्री को पत्र लिखा और याद दिलाया कि मंत्रिमंडलीय समिति ने मिसाइलों के आयात को स्थगित करके इसका फैसला अगली सरकार के लिए छोड़ दिया है और समिति की जानकारी के बगैर कोई निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए। स्वाभाविक तौर पर जॉर्ज फर्नांडीज भी इस समिति के सदस्य थे और तकनीकी रूप से उन्हें भी इसकी जानकारी थी। फिर 2 मार्च, 2000 को मंत्रिमंडलीय समिति ने यह सौदा मंजूर कर दिया और मंजूरी के इस फैसले ने तीन लाइन में श्री कलाम की आपत्तियों को खारिज भी कर दिया। फटाफट मोल भाव हुआ और पहली सात बराक मिसाइलों को खरीदने का फैसला 23 अक्टूबर, 2000 को हो गया। यह सौदा आठ अरब रुपए का था। आर के जैन का बयान कहता है कि इसमें से तीन प्रतिशत जॉर्ज फर्नांडीज और जया जेटली के पास गया और आधा प्रतिशत उसे मिला। अदायगी नौसेना के अध्यक्ष के बेटे सुरेश नंदा के हाथ से हुई थी।

इस सौदे में लेन-देन भी कम संदिग्ध नहीं है। मोटरोन-टरबियोन नाम की एक कंपनी ने सुरेश नंदा की कंपनी डायनाट्रोल सर्विसेज के खते में मोटी रकम जमा की। यह रकम निकल कर मैग्नन इंटरनेशनल ट्रेडिंग में चली गई और वहां से निकली तो यूरेका सेल्स कॉरपोरेशन के खाते में पहुंच गई। यूरेका सेल्स कॉरपोरेशन के मालिक कोई सुधीर चौधरी हैं, जो नंदा के रिश्तेदार भी हैं और व्यापारिक सहयोगी भी। कलाम के हटने के बाद भी डीआरडीओ बराक आयात का विरोध करता ही रहा। त्रिशूल परियोजना के भूतपूर्व परियोजना प्रबंधक खुद बराक का प्रदर्शन देखने इजरायल गए थे और उन्होंने भी विरोध में एक पत्र लिखा। लेकिन पैसा आ चुका था, सौदा हो चुका था और खुद रक्षा मंत्री की मेहरबानी थी इसीलिए सौदे को कोई रोक नहीं सका। जॉर्ज फर्नांडीज जब सीबीआई के सामने जवाब देने बैठेंगे, तो आज से सुन लीजिए कि भूल जाने का नाटक करेंगे क्योंकि यह नाटक वे एक बार मेरे साथ भी कर चुके हैं। दाऊद इब्राहीम से मेरे दुबई में हुए इंटरव्यू का टेप वे मेरे ऑफिस आ कर ले कर गए थे और जब वापस मांगा, तो उन्होंने पूछा-कौन सा टेप? पता नहीं उस टेप का सौदा कितने में हुआ था।

Tuesday, March 11, 2008

हॉकी के बंटाधार के लिए कौन जिम्मेदार?


हॉकी के बंटाधार के लिए कौन जिम्मेदार?
संजय शर्मा
अगर हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद 100 साल जी गए होते, तो हॉकी को रसातल में जाते देखकर न जाने उन पर क्या बीतती। हालांकि वर्ष 1979 में जब उनका निधन हुआ, तब वह मांट्रियल ओलंपिक में भारत का बुरा प्रदर्शन देख चुके थे। लेकिन 80 साल में यह पहली बार है, जब भारतीय हॉकी टीम ओलंपिक के लिए क्वालिफाई नहीं कर पाई। चिली में फाइनल में ब्रिटेन ने उसे 2-0 से पीट दिया। यानी वर्ष 1928 के बाद पहली बार होगा, जब आठ बार स्वर्ण पदक जीतने वाली टीम ओलंपिक में नहीं होगी। जाहिर है, इस हार पर पूरे भारत में हायतौबा मची हुई है।

भारत की खोज में निकले राहुल गांधी ने चयन में पक्षपात को जिम्मेदार बताया है, तो कुंभकर्णी नींद में पड़े खेल मंत्रालय के मौजूदा मंत्री मणिशंकर अय्यर ने लंबी रणनीति बनाने की बात कही है। कुछ सांसदों ने अफसोस जताया है, तो कुछ पूर्व ओलंपियनों ने ठीकरा अध्यक्ष केपीएस गिल पर फोड़ा है। एक समय अध्यक्ष के चुनाव में गिल के खिलाफ खम ठाेंकने वाले उपाध्यक्ष नरेंद्र बतरा की अंतरात्मा अलसुबह जाग गई और उन्होंने इस्तीफा दे दिया। पूर्व ओलंपियन जलालुद््दीन साहब ने बताया कि हॉकी वालों में एक जुमला खूब चलता है कि गिल साहब जो जिम्मेदारी लेते हैं, उसे खत्म करके ही दम लेते हैं। पहले पंजाब से आतंक को खत्म किया, अब हॉकी को खत्म करेंगे। गिल साहब का कहना है कि इस्तीफा नहीं देंगे
हॉकी को वक्त चाहिए। यह कोई इन्स्टेंट कॉफी मशीन नहीं है। हालांकि वह काफी वक्त ले चुके हैं।
दरअसल सचाई यह है कि कभी हिटलर तक को मोहित करने वाली भारतीय हॉकी की सफलता के जमाने में इसके बहुत माई-बाप थे, आज भी हैं। लेकिन इन सबने इसकी ठीक से परवरिश नहीं की। वर्ष 1975 का वर्ल्ड कप जब हम जीते थे, तब वह टीम भारतीय ओलंपिक संघ ने भेजी थी, क्योंकि तब हॉकी फेडरेशन में झगड़ा चल रहा था।
विडंबना देखिए कि जब हमारे यहां छीना-झपटी का खेल चल रहा था, तब दूसरे देश इस खेल में भारत-पाकिस्तान के दबदबे को खत्म करने के लिए इसे एस्ट्रो टर्फ पर लाकर कलात्मक की जगह ‘पावर गेम’ बनाने में जुटे थे। ऑस्ट्रेलिया ने जिस भारतीय शख्स को वर्ष 1971 के आसपास अपनी टीम का कोच बनाया था, उसे हमारे फेडरेशन वालों ने कभी घास नहीं डाली। जहां यूरोपीय हॉकी को एस्ट्रो टर्फ पर लाने वाले थे, वहीं कंगारुओं ने इस भारतीय शख्स की मदद से एशियाई और यूरोपीय हॉकी को मिलाकर अपनी हॉकी को ‘खच्चर’ बना डाला। उसके बाद हॉकी में आस्ट्रेलिया की ताकत दुनिया ने देखी।
आखिरी बार हम वर्ष 1975 में क्वालालंपुर में घास के मैदान पर विश्व चैंपियन बने थे। और मॉस्को में पॉलीग्रास (यह भी कृत्रिम घास थी) पर ताकतवर मुल्कों की गैरमौजूदगी में हमने ओलंपिक जीता था। लेकिन हमारी हॉकी ने वर्ष 1976 के मांट्रियल ओलंपिक में मानो कफन ओढ़ लिया। भले ही लोग कहें कि इस पर आखिरी कील अब ठुकी है, लेकिन इसका एक ठोस पहलू यह भी है कि वर्ष 1983 में कपिल देव की टीम के इंगलैंड में विश्व कप क्रिकेट जीतने के साथ ही इसका पतन शुरू हो गया था।
हॉकी को रसातल में ले जाने का जिम्मा भले ही हॉकी फेडरेशन का हो, लेकिन कुछ बातें हैं, जिन पर गौर करें, तो हॉकी में फैली हताशा समझी जा सकती है। इसकी एक वजह तो क्रिकेट का ब्रांड बनना या उसका एकाधिकार ही है। फिर हॉकी के राष्ट्रीय खेल होने और वेस्ट इंडीज क्रिकेट के पराभव का भी विश्लेषण करें, तो बात आसानी से समझ में आ जाएगी। हर कोई जानता है कि एकाधिकार या प्रभुत्व ऐसे बरगद हैं, जिनके नीचे कोई दूसरा वृक्ष पनप नहीं सकता। क्रिकेट रूपी बरगद ब्रांड के नीचे हॉकी समेत अन्य सभी खेल दबते चले गए। हॉकी में 1975 की पराजय के दस साल के भीतर क्रिकेट भारत में ब्रांड बनने लगा था।
यह जानकर हैरत होगी कि वर्ष 1983 की विजेता टीम की अगवानी और सम्मान कार्यक्रम कराने के लिए लता मंगेशकर ने बीसीसीआई के लिए पैसे जुटाए थे, क्योंकि क्रिकेट को भारत सरकार से वित्तीय सहायता नहीं मिलती थी और बीसीसीआई केपास इतने पैसे नहीं थे। वैसे यह क्रिकेट के लिए शुभ ही रहा।
एक अन्य बिंदु है वेस्ट इंडीज क्रिकेट का पराभव, जिससे हम भारतीय हॉकी की दुर्गति को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। वेस्ट इंडीज की क्रिकेट अचानक निचली पायदान पर नहीं गई। इसकी प्रक्रिया तभी शुरू हो गई थी, जब यह टीम शिखर पर थी। तब उन 15-20 सालों में वहां के बच्चे-किशोर क्रिकेट के बजाय बास्केटबॉल को अपना रहे थे। जानते हैं क्यों? उन्हें बगल में बसे अमेरिका में अपना भविष्य सुरक्षित नजर आया। वहां बास्केटबॉल में इफरात पैसा था और इस मामले में कंगाल वेस्ट इंडीज बोर्ड अपनी कामयाबी के मद में इतना चूर था कि वह जान ही नहीं पाया कि उसके पैरों तले जमीन खिसक चुकी है। नतीजा यह हुआ कि जिन प्रतिभाशाली लड़कों में लॉयड, होल्डिंग, गार्नर, रिचड््र्स बनने के गुण थे, वे बास्केटबॉल में नामी हो गए।
हमें यह समझना होगा कि किसी भी देश में बेहतरीन मेधा सीमित ही होती है और यह उसके तंत्र पर निर्भर करता है कि वह विभिन्न क्षेत्रों या खेलों में अग्रणी बनने के लिए उसका उपयोग समान रूप से कैसे करता है। कहना न होगा कि इस मोरचे पर हमारा प्रबंधन तंत्र बुरी तरह से विफल रहा है। विभिन्न खेल संघों पर राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के कब्जे ने हालात को बदतर बनाया है। ऐसे में, स्वाभाविक रूप से हॉकी समेत तमाम खेलों में पेशेवर नजरिये की कमी देखी गई।
वर्ष 1983 में क्रिकेट में जीत और 1976 में मांट्रियल ओलंपिक की हार के नतीजों के संभावित परिणामों का हमारी सरकार और भारतीय ओलंपिक संघ सही आकलन नहीं कर पाए। उनमें शायद इतनी दूरदर्शिता थी भी नहीं। क्रिकेट में जीत से लोगों को ऐसा नशा मिला, जिसे बढ़ना ही था। इसमें ग्लैमर आया, पैसा घुसा, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की क्रांति के बाद यह छोटे शहरों और कसबों में पसर गया। नतीजा यह हुआ कि जो यूपी, बिहार (झारखंड), पंजाब, हरियाणा हॉकी, फुटबॉल, कुश्ती, बॉलीवॉल और बास्केटबॉल की नर्सरी होते थे, आज वहां के कसबों-गांवों की दिमागी और शारीरिक तौर से मजबूत बाल-किशोर प्रतिभाएं क्रिकेट की सप्लाई लाइन बन गई हैं। अगर सरकार और खेल संगठनों ने सभी क्षेत्रों में इस सप्लाई लाइन के समान वितरण के गणित को नहीं समझा, तो यह कहने में तनिक भी हिचक नहीं होनी चाहिए कि देश से दूसरे खेलों का वजूद मिटते देर नहीं लगेगी।
(लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं)

Monday, March 10, 2008

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देशभक्तों का महान संगठन ?

प्रभाष जोशी
कल आपने देखा कि जिसे गाना था उसने वंदेमातरम् गाया जिसे नहीं गाना था उसने नहीं गाया. जिन राज्यो में भारतीय जनता पार्टी का राज है और जहां वह दूसरी पार्टी के साथ राज कर रही है, वहां की सरकारों ने वंदेमातरम् गाने का अनिवार्य कर दिया था. लेकिन जहां कॉग्रेस और दूसरी पार्टियों का राज है वहां इसके गाने न गाने की छूट थी. जिन भाजपाई सरकारों ने इसे अनिवार्य किया वे भी दावा नहीं कर सकतीं कि जो मुसलमान, ईसाई और सिख इसे गाना नहीं चाहते थे उनसे भी वंदेमातरम् गवा लिया गया है. आदमी अगर ऐसा ही मशीनी होता और गाना रेकॉर्ड बजवाने जैसा मैकेनिकल काम होता तो न तो महान गीत होते न महान संगीत. अपनी मां, मातृभूमि और देश से आप सहज और स्वैच्छिक प्रेम करते हैं. कोई करवा नहीं सकता. सहजता और स्वैच्छिकता संस्कृति की महान उपलब्धियों की कुंजी है. जो राष्ट्र अपने नागरिकों की सहजता और स्वैच्छिकता का आदर करता है और उन पर कोई चीज़ थोप कर उन्हें मजबूर नहीं करता सभ्यता और संस्कृति में वह उतना ही विकसित होता है.

कोई प्रेरित व्यक्ति जितने बड़े काम कर सकता है मजबूर आदमी नहीं कर सकता है. अगर इस सत्य को आप समझते हैं तो लोगों को प्रेरित करेंगे, जो वे मन से और सहजता से कर सकते हैं उसे करने की छूट देंगे और इस स्वतंत्र और स्वैच्छिक वातावरण में जो प्राप्त होगा उसका गौरव गान करेंगे. वंदेमातरम् के राष्ट्रगीत होने की जैसे भी और जैसी भी मनाई गई शताब्दी पर अगर देशप्रेम, शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के प्रति कृतज्ञता और समर्पण को ऊंचा उठा देने वाली भावना सर्वव्यापी नहीं हुई तो दोष उन्हीं का है जो इसका गाना अनिवार्य करना चाहते थे. यह पहली बार नहीं हुआ है कि मुसलमानों के एक तबके ने वंदेमातरम् के गाने को इस्लाम विरोधी कहा हो. वैसे ही यह भी पहली बार नहीं हुआ है कि संघ परिवारियों ने इसके गाने को मुसलमानों के लिए अनिवार्य करने का हल्ला मचाया हो. मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच यह झगड़ा आज़ादी के बहुत पहले से चला आ रहा है. आज़ादी के आंदोलन की मुख्यधारा तो कॉग्रेस की ही थी और उसी ने वंदेमातरम् को बाक़ायदा अपनाया भी. लेकिन उसी ने इसे गाते हुए भी इसका गाना स्वैच्छिक रखा. कॉग्रेस का सन १९३७ के अधिवेशन का प्रस्ताव इसका प्रमाण है. उसी ने इसे स्वतंत्र लोकतांत्रिक गणराज्य भारत का राष्ट्रगीत भी बनाया.

अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के लिए वंदेमातरम् का गाना अनिवार्य करने की मांग संघ परिवारियों की ही रही है. ये वही लोग हैं जिनने उस स्वतंत्रता संग्राम को ही स्वैच्छिक माना है जिसमें से वंदेमातरम् निकला है. अगर भारत माता की स्वतंत्रता के लिए क़ुरबान हो जाना ही देशभक्ति की कसौटी है तो संघ परिवारी तो उस पर चढ़े भी नहीं, खरे उतरने की तो बात ही नहीं है. लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि राष्ट्रभक्ति का कोई प्रतीक स्वैच्छिक हो. तो फिर आज़ादी की लड़ाई के निर्णायक ”भारत छोड़ो आंदोलन” के दौरान वे खुद क्या कर रहे थे? उनने खुद ही कहा है- ”मैं संघ में लगभग उन्हीं दिनों गया जब भारत छोड़ो आंदोलन छिड़ा था क्योंकि मैं मानता था कि कॉग्रेस के तौर-तरीक़ों से तो भारत आज़ाद नहीं होगा. और भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत थी.” संघ का रवैया यह था कि जब तक हम पहले देश के लिए अपनी जान क़ुरबान कर देने वाले लोगों का मज़बूत संगठन नहीं बना लेते, भारत स्वतंत्र नहीं हो सकता. लालकृष्ण आडवाणी भारत छोड़ो आंदोलन को छोड़कर करांची में आरम-दक्ष करते देश पर क़ुरबान हो सकने वाले लोगों का संगठन बनाते रहे. पांच साल बाद देश आज़ाद हो गया. इस आज़ादी में उनके संगठन संघ- के कितने स्वयंसेवकों ने जान की क़ुरबानी दी? ज़रा बताएं.

एक और बड़े देशभक्त स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी हैं. वे भी भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बच्चे नहीं संघ कार्य करते स्वयंसेवक ही थे. एक बार बटेश्वर में आज़ादी के लिए लड़ते लोगों की संगत में पड़ गए. उधम हुआ. पुलिस ने पकड़ा तो उत्पात करने वाले सेनानियों के नाम बताकर छूट गए. (दस्तावेजी प्रमाण के लिए यहां देखें) आज़ादी आने तक उनने भी देश पर क़ुरबान होने वाले लोगों का संगठन बनाया जिन्हें क़ुरबान होने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि वे भी आज़ादी के आंदोलन को राष्ट्रभक्ति के लिए स्वैच्छिक समझते थे.

अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने को देशभक्तों का महान संगठन कहे और देश पर जान न्योछावर करने वालों की सूची बनाए तो यह बड़े मज़ाक का विषय है. सन् १९२५ में संघ की स्थापना करने वाले डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार को बड़ा क्रांतिकारी और देशभक्त बताया जाता है. वे डॉक्टरी की पढ़ाई करने १९१० में नागपुर से कोलकाता गए जो कि क्रांतिकारियों का गढ़ था. हेडगेवार वहां छह साल रहे. संघवालों का दावा है कि कोलकाता पहुंचते ही उन्हें अनुशीलन समिति की सबसे विश्वसनीय मंडली में ले लिया गया और मध्यप्रांत के क्रांतिकारियों को हथियार और गोला-बारूद पहुंचाने की ज़िम्मेदारी उन्हीं की थी. लेकिन ना तो कोलकाता के क्रांतिकारियों की गतिविधियों के साहित्य में उनका नाम आता है न तब के पुलिस रेकॉर्ड में. (इतिहासकारों का छोड़े क्योंकि यहां इतिहासकारों का उल्लेख करने पर कुछ को उनकी निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करने का अवसर मिल सकता है) खैर, हेडगेवार ने वहां कोई महत्व का काम नहीं किया ना ही उन्हें वहां कोई अहमियत मिली. वे ना तो कोई क्रांतिकारी काम करते देखे गए और ना ही पुलिस ने उन्हें पकड़ा. १९१६ में वे वापस नागपुर आ गए.

लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद वे कॉग्रेस और हिन्दू महासभा दोनों में काम करते रहे. गांधीजी के अहिंसक असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों में भाग लेकर ख़िलाफ़त आंदोलन के वे आलोचक हो गए. वे पकड़े भी गए और सन् १९२२ में जेल से छूटे. नागपुर में सन् १९२३ के दंगों में उनने डॉक्टर मुंजे के साथ सक्रिय सहयोग किया. अगले साल सावरकर का ”हिन्दुत्व” निकला जिसकी एक पांडुलिपी उनके पास भी थी. सावरकर के हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करने के लिए ही हेडगेवार ने सन् १९२५ में दशहरे के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की. तब से वे निजी हैसियत में तो आज़ादी के आंदोलन और राजनीति में रहे लेकिन संघ को इन सबसे अलग रखा. सारा देश जब नमक सत्याग्रह और सिविल नाफ़रमानी आंदोलन में कूद पड़ा तो हेडगेवार भी उसमें आए लेकिन राष्टीय स्वयंसेवक संघ की कमान परांजपे को सौंप गए. वे स्वयंसेवकों को उनकी निजी हैसियत में तो आज़ादी के आंदोलन में भाग लेने देते थे लेकिन संघ को उनने न सशस्त्र क्रांतिकारी गतिविधियों में लगाया न अहिंसक असहयोग आंदोलनों में लगने दिया. संघ ऐसे समर्पित लोगों के चरित्र निर्माण का कार्य कर रहा था जो देश के लिए क़ुरबान हो जाएंगे. सावरकर ने तब चिढ़कर बयान दिया था, ”संघ के स्वयंसेवक के समाधि लेख में लिखा होगा- वह जन्मा, संघ में गया और बिना कुछ किए धरे मर गया.”

हेडगेवार तो फिर भी क्रांतिकारियों और अहिंसक असहयोग आंदोलनकारियों में रहे दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर तो ऐसे हिन्दू राष्ट्रनिष्ठ थे कि राष्ट्रीय आंदोलन, क्रांतिकारी गतिविधियों और ब्रिटिश विरोध से उनने संघ और स्वयंसेवकों को बिल्कुल अलग कर लिया. वाल्टर एंडरसन और श्रीधर दामले ने संघ पर जो पुस्तक द ब्रदरहुड इन सेफ़्रॉन- लिखी है उसमें कहा है, ”गोलवलकर मानते थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबंदी लगाने का कोई बहाना अंग्रेज़ों को न दिया जाए.” अंग्रेज़ों ने जब ग़ैरसरकारी संगठनों में वर्दी पहनने और सैनिक कवायद पर पाबंदी तो संघ ने इसे तत्काल स्वीकार किया. २९ अप्रैल १९४३ को गोलवलकर ने संघ के वरिष्ठ लोगों के एक दस्तीपत्र भेजा. इसमें संघ की सैनिक शाखा बंद करने का आदेश था. दस्तीपत्र की भाषा से पता चलता है कि संघ पर पाबंदी की उन्हें कितनी चिंता थी- ”हमने सैनिक कवायद और वर्दी पहनने पर पाबंदी जैसे सरकारी आदेश मानकर ऐसी सब गतिविधियां छोड़ दी हैं ताकि हमारा काम क़ानून के दायरे में रहे जैसा कि क़ानून को मानने वाले हर संगठन को करना चाहिए. ऐसा हमने इस उम्मीद में किया कि हालात सुधर जाएंगे और हम फिर ये प्रशिक्षण देने लगेंगे. लेकिन अब हम तय कर रहे हैं कि वक़्त के बदलने का इंतज़ार किए बिना ये गतिविधियां और ये विभाग समाप्त ही कर दें.” (ये वो दौर था जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे क्रांतिकारी अपने तरीक़े से संघर्ष कर रहे थे) पारंपरिक अर्थों में गोलवलकर क्रांतिकारी नहीं थे. अंग्रेज़ों ने इसे ठीक से समझ लिया था.

सन् १९४३ में संघ की गतिविधियों पर तैयार की गई एक सरकारी रपट में गृह विभाग ने निष्कर्ष निकाला था कि संघ से विधि और व्यवस्था को कोई आसन्न संकट नहीं है. १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में हुई हिंसा पर टिप्पणी करते हुए मुंबई के गृह विभाग ने कहा था, ”संघ ने बड़ी सावधानी से अपने को क़ानूनी दायरे में रखा है. खासकर अगस्त १९४२ में जो हिंसक उपद्रव हुए हैं उनमें संघ ने बिल्कुल भाग नहीं लिया है.” हेडगेवार सन् १९२५ से १९४० तक सरसंघचालक रहे और उनके बाद आज़ादी मिलने तक गोलवलकर रहे. इन बाईस वर्षों में आज़ादी के आंदोलन में संघ ने कोई योगदान या सहयोग नहीं किया. संघ परिवारियों के लिए संघ कार्य ही राष्ट्र सेवा और राष्ट्रभक्ति का सबसे बड़ा काम था. संघ का कार्य क्या है? हिन्दू राष्ट्र के लिए मर मिटने वाले स्वयंसेवकों का संगठन बनाना. इन स्वयंसेवकों का चरित्र निर्माण करना. उनमें ऱाष्ट्रभक्ति को ही जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा और शक्ति मानने की परम आस्था बैठाना. १९४७ में जब देश आज़ाद हुआ तो देश में कोई सात हज़ार शाखाओं में छह से सात लाख स्वयंसेवक भाग ले रहे थे. आप पूछ सकते हैं कि इन एकनिष्ठ देशभक्त स्वयंसेवकों ने आज़ादी के आंदोलन में क्या किया? अगर ये सशस्त्र क्रांति में विश्वास करते थे तो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इनने कितने सशस्त्र उपद्रव किए, कितने अंग्रेज़ों को मारा और उनके कितने संस्थानों को नष्ट किया. कितने स्वयंसेवक अंग्रेज़ों की गोलियों से मरे और कितने वंदेमातरम् कहकर फांसी पर झूल गए? हिन्दुत्ववादियों के हाथ से एक निहत्था अहिंसक गांधी ही मारा गया.

संघ और इन स्वयंसेवकों के लिए आज़ादी के आंदोलन से ज़्यादा महत्वपूर्ण स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र के लिए संगठन बनाना और स्वयंसेवक तैयार करना था. संगठन को अंग्रेज़ों की पाबंदी से बचाना था. इनके लिए स्वतंत्र भारत राष्ट्र अंग्रेज़ों से आज़ाद कराया गया भारत नहीं था. इनका हिन्दू राष्ट्र तो कोई पांच हज़ार साल से ही बना हुआ है. उसे पहले मुसलमानों और फिर अंग्रेज़ों से मुक्त कराना है. मुसलमान हिन्दू राष्ट्र के दुश्मन नंबर एक और अंग्रेज़ नंबर दो थे. सिर्फ़ अंग्रेज़ों को बाहर करने से इनका हिन्दू राष्ट्र आज़ाद नहीं होता. मुसलमानों को भी या तो बाहर करना होगा या उन्हें हिन्दू संस्कृति को मानना होगा. इसलिए अब उनका नारा है- वंदे मातरम् गाना होगा, नहीं तो यहां से जाना होगा. सवाल यह है कि जब आज़ादी का आंदोलन- संघ परिवारियों के लिए स्वैच्छिक था तो स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत में वंदेमातरम् गाना स्वैच्छिक क्यों नहीं हो सकता? भारत ने हिन्दू राष्ट्र को स्वीकार नहीं किया है. यह भारत संघियों का हिन्दू राष्ट्र नहीं है. वंदेमातरम् राष्ट्रगीत है, राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं
साभार- जनसत्ता,

बीच बहस में- वंदेमातरम्

बीच बहस में- वंदेमातरम्
नीरज दीवान
वंदेमातरम् पर हुई राजनीति पर बहुत से आलेख पिछले दिनों लिखे गए. यहां कोशिश की गई कि इतिहास की तारीख़ों पर नज़र डालते हुए कुछ संशय आपके सामने रखूं.

१८७६ में इस गीत की रचना हुई. बंकिमचंद्र चटर्जी ने इसे लिखा उसके छह साल बाद यानी १८८२ में आनंदमठ प्रकाशित हुई. १८७६ से १९७६ तक के सौ साल और उसके बाद १२५ साल २००१ मे पूरे हुए.
१८९६ में कोलकाता अधिवेशन में गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया. इस लिहाज़ से १९९६ में इसके १०० साल पूरे हुए.
१९०५ (अथवा १९०६) में सात सितम्बर को बनारस में हुए कॉग्रेस अधिवेशन में इसे टैगोर की भतीजी सरला देवी चौधरानी ने तत्कालीन अध्यक्ष लोकमान्य तिलक के अनुरोध पर गाया. कहा जाता है कि इसी अधिवेशन में कॉग्रेस ने इसे अपना आधिकारिक गीत अंगीकार किया.
इतिहासकार सुमीत सरकार ने सवाल उठाया है कि कॉग्रेस के अधिवेशन अमूमन दिसम्बर में होते रहे हैं. मेरा (ब्लॉगर) स्वयं का प्रेक्षण रहा है कि कॉग्रेस का सालाना अधिवेशन हमेशा दिसम्बर में होता आया है. फिर सितम्बर में अंगीकार करने के सवाल पर सफाई अब कॉग्रेस को देनी है.
आज ही मैंने अखिल भारतीय कॉग्रेस कमेटी की आधिकारिक साइट पर जाकर देखा तो हैरानगी हुई कि जिस अधिवेशन की बात कॉग्रेस सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के अर्जुन सिंह यह बताते हुए कह रहे हैं कि इसी साल (२००६) में इसके सौ साल पूरे हुए तो लगा कि या तो सरकार के तथ्य सही नहीं है या फिर साइट झूठ बोल रही है. साइट के मुताबिक़ बनारस अधिवेशन १९०५ में हुआ था. यानी १०० साल तो २००५ में ही हो चुके थे.
उससे भी बड़ी हैरानगी तब होती है जब मानव संसाधन मंत्रालय बिना इतिहासकारों की राय लिए या दस्तावेजी प्रमाण हासिल किए एक फ़रमान जारी कर दे और संघ परिवार उसका स्वामिभक्ति से पालन करने लग जाए. इससे पहले सौ या सवा सौ सालों पर किसी सरकार (कॉग्रेस, एनडीए और यूपीए) ने कोई उत्सव नहीं मनाया.

थोड़ा अपना धर्म और जीवन परंपरा को समझो



अभिव्‍यक्ति की आज़ादी और भावनाओं को ठेस का मतलब

प्रभाष जोशी
लालकृष्‍ण आडवाणी का कहना है कि कलाकार की अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने की आज़ादी नहीं हो सकती। अख़बार कहते हैं कि ऐसा उनने अपने सांसदों से कहा। भाजपा को यह बात मीडिया में उजागर करनी पड़ी, क्‍योंकि कुछ अख़बारों ने मेनका गांधी की उस चिट्ठी की ख़बर छापी थी, जो उनन जंग लगे भूतपूर्व लौह पुरुष को वडोदरा में भाजपाई-विहिपाई कार्यकर्ताओं द्वारा कला प्रदर्शनी में जबरन घुस कर तोड़-फोड़ करने के खिलाफ निंदा में लिखी थी। भाजपा दुनिया को बताना चाहती है कि वडोदरा के महाराजा सयाजीराव विश्‍वविद्यालय के कला संकाय में उनके कार्यकर्ताओं ने देवी-देवताओं के ‘अश्‍लील और अशोभनीय’ चित्रों के खिलाफ जो कुछ किया, पार्टी उसको बुरा नहीं मानती है। इस बेशर्मी को सिद्धांतकार लालकृष्‍ण आडवाणी के उद्धरण से अलंकृत किया गया है कि कोई कलाकार अपनी अभिव्‍यक्ति की आज़ादी के बहाने हमारी धार्मिक भावनाओं को चोट नहीं पहुंचा सकता। तथाकथित धार्मिक भावनाओं के बहाने इस देश के नागरिकों को मिली बुनियादी आज़ादियों के खिलाफ संघ संप्रदायिओं की यह फासिस्‍ट मुहिम है। कैसे? एक उदाहरण लीजिए-

कुछ साल पहले कथाकार कमलेश्‍वर और मुझे उज्‍जैन बुलाया गया था। वह कार्यक्रम शायद कालिदास अकादमी ने आयोजित किया था। साहित्‍य में सांप्रदायिक समरसता से निकला कोई विषय रहा होगा। कमलेश्‍वर ने बोलना शुरू किया और जैसे ही उनने बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने का ज़‍िक्र किया, श्रोताओं में से कुछ लोग उठे और उत्तेजित होकर चिल्‍लाने लगे। उनके एतराज़ को सुनने-समझने की कोशिश की गयी, तो बात निकल कर यह आयी कि उन्‍हें ‘बाबरी मस्जिद के ध्‍वंस’ से आपत्ति है। वे मानते हैं कि वह ‘विवादित ढांचा’ था, जो ढह गया। उसे ‘बाबरी मस्जिद’ क्‍यों कहा जा रहा है। वे यह नहीं सुनेंगे क्‍योंकि इससे उनकी भावनाओं को चोट पहुंचती है। और कमलेश्‍वर को इसका कोई अधिकार नहीं है कि वे लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचाएं। कार्यक्रम में उपद्रव करने वाले लोगों का यह कहना मंच पर बैठे लोगों को मंज़ूर नहीं था। उनमें महेश बुच भी थे, जो कभी उज्‍जैन के कलेक्‍टर/कमिश्‍नर भी रह चुके थे। हमने उपद्रव करने वालों की यह मांग भी नहीं मानी कि कमलेश्‍वर न बोलें। बाकी के लोग बोलें तो कार्यक्रम चलने दिया जाएगा। मैंने कहा कि जिस सभा में कमलेश्‍वर को बोलने नहीं दिया जाएगा, उसमें मैं तो नहीं बोलूंगा। कोई आधे घंटे तक तनाव बना रहा।

कार्यक्रम के आयोजको, बाकी के श्रोताओं और उपद्रव करने आये उन लोगों के बीच बातचीत होती रही। हल्‍ला और हंगामा भी होता रहा। कई प्रतिष्ठित नागरिक हमें घेर कर बैठे रहे और हमें मनाते रहे कि विवाद और उपद्रव ख़त्‍म हो, तो कार्यक्रम फिर शुरू किया जा सके। आख़‍िर हमें सूचित किया गया कि कमलेश्‍वर अपना भाषण पूरा करेंगे। इसके बाद उपद्रव करने वालों में से कोई एक व्‍यक्ति आकर जो कुछ उसे बोलता है, बोलेगा और फिर मुझे भाषण देना है। फिर अध्‍यक्ष को जो कुछ कहना होगा, कहेंगे। मुझे लगा कि उपद्रव से कमलेश्‍वर का उत्‍साह और बोलने की सहज इच्‍छा काफी कम हो गयी थी। वे बोले और वही सब कुछ बोले, जो उन्‍हें बोलना था। बाबरी मस्जिद के ध्‍वंस को उनने बाबरी मस्जिद को तोड़ना ही कहा। फिर उपद्रवियों में से एक सज्‍जन आये और ज़ोर-ज़ोर से भाषण देने की कला के अपने प्रशिक्षण के अनुसार बोले और उनके साथ आये लोग तालियां पीटते रहे। फिर मैं कोई घंटे भर बोला। अपने धर्म और पुराणों की समझ में ये संघ परिवारी बेचारे बिल्‍कुल एकांगी हैं। भारतीय समाज की इनकी समझ भी मुसलमान काल से पीछे नहीं जाती। अपने समाज की विविधता, बहुलता और सर्वग्राहिता इनकी पकड़ में नहीं आती। शाखाओं में जो एकांगी और जड़ ज्ञान दिया जाता है, उसी को दोहराते रहते हैं। मेरा अनुभव है कि धर्म और भारतीय समाज पर इन्‍हें लेकर इनसे बड़ी आसानी से निपटा जा सकता है। उस दिन मैंने कहा कि आपके विवादित ढांचा कहने से बाबरी मस्जिद सिर्फ एक विवाद का ढांचा नहीं हो जाएगी।
सारी दुनिया जानती है कि 22/23 दिसंबर, सन 1949 की रात उसमें लाकर रामलला और दूसरी दो मूर्तियां रखी गयीं। ज़‍िला मजिस्‍ट्रेट नायर ने उन्‍हें मुख्‍यमंत्री गोविंद बल्‍लभ पंत के आदेश के बावजूद हटाया नहीं। हिंदू महासभा वालों ने अखंड पाठ चला कर जनता में रामलला के प्रकट होने की बात फैलायी। हज़ारों लोग इकट्ठा हुए। तबसे बाबरी मस्जिद में नमाज नहीं हुई। क्‍योंकि जहां मूर्तियां रखी हों, वहां नमाज नहीं पढ़ी जा सकती। सन 1528 में बनी बाबरी मस्जिद 1992 में आपके कहने से विवादित ढांचा नहीं हो जाएगी।
यह किस्‍सा इसलिए सुनाया कि बाबरी मस्जिद को विवादित ढांचा कहने को कमलेश्‍वर जैसे लेखक को मजबूर करने और उसके लिए ‘हमारी भावनाओं को चोट पहुंचाने का’ मामला सिर्फ कलाकार चंद्रमोहन और हुसैन से नहीं बनता। ‘हमारी भावनाओं को चोट पहुंचाने का हल्‍ला’ इसलिए मचाया जाता है कि जो हम मानते और करते हैं, आप भी वही मानिए, नहीं तो आपकी खैर नहीं है। यह मामला सिर्फ नैतिक पुलिसगिरी का भी नहीं है। यह उस जीवन पद्धति और सिर्फ उन मूल्‍यों पर हमला है, जो इस देश के लोगों ने सदियों के जीवनानुभव से विकसित किये हैं। यह हमारी सभी बुनियादी आज़ादियों पर हमला है। इसलिए महाराजा सयाजीराव विश्‍वविद्यालय के उस जगप्रसिद्ध ललित कला संकाय के अंतिम वर्ष के छात्र चंद्रमोहन की नियति को मात्र एक बेचारे कलाकार का दुर्भाग्‍य मत मानिए।

कल आप भी अपने ढंग से जीने और अभिव्‍य‍क्‍त होने के अपने मौलिक अधिकार और स्‍थान के लिए छह रात जेल में काटने को मजबूर किये जा सकते हैं।
आंध्र से वडोदरा के इस प्रख्‍यात कला संकाय में चित्रकारी सीखने आये चंद्रमोहन की माली हालत नाज़ुक है, लेकिन वह प्रतिभाशाली है, इसलिए उसे दो छात्रवृत्तियां मिली हुई है, जिनने उसे यहां पहुंचाया। गये साल उसे ललित कला अकादमी का राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार भी मिला है। इस साल परीक्षा के लिए उसने कुछ चित्र बनाये। ये चित्र कला संकाय के शिक्षकों और छात्रों के लिए थे, जो इन्‍हें देख कर और इनका आकलन करके चंद्रमोहन को नंबर और ग्रेड देते। उसका यह काम अपनी संकाय परीक्षा के लिए किया गया था और संकाय के शिक्षकों के लिए ही था। जैसे कोई छात्र अपनी परीक्षा के लिए उत्तर पुस्तिका लिखता है, वैसे ही और उसी के लिए चंद्रमोहन ने ये चित्र बनाये थे। संकाय में उनकी प्रदर्शनी भी परीक्षा और आकलन के लिए लगी थी। यह आम जनता क्‍या संकाय के बाहर विश्‍वविद्यालय के लिए भी आम प्रदर्शनी नहीं थी। क्‍या अंतिम वर्ष की परीक्षा और आकलन के लिए किये गये काम को आप सार्वजनिक स्‍थल पर आम लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचाने वाला काम कह सकते हैं?

फिर विश्‍व हिंदू परिषद के नीरज जैन अपने साथियों को लेकर उस हॉल में उपद्रव करने और कला संकाय के छात्रों और शिक्षकों से गाली गलौज और मारपीट करने कैसे पहुंच गये? उन्‍हें न सिर्फ वहां जाने और विश्‍वविद्यालय के कला संकाय के परीक्षा कार्य में कोई हस्‍तक्षेप करने का अधिकार था, न वे वहां रखे गये चित्रों पर कोई फैसला दे सकते थे। उन्‍हें वहां किसी ने बुलाया नहीं था। वह जगह आम जनता के लिए खुली नहीं थी। फिर नीरज जैन और उनके साथी वहां पहुंचे कैसे और चंद्रमोहन के चित्रों पर एतराज़ करके उन्‍हें हटाने की मांग क्‍यों करने लगे। इसलिए कि वे विश्‍व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता हैं और गुजरात में भाजपाई नरेंद्र मोदी की सरकार है? और भी मज़ा देखिए कि न सिर्फ नीरज जैन और उनके साथी वहां पहुंच गये, वहां पुलिस भी आ गयी। जैसे विश्‍व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने विश्‍वविद्यालय से इजाज़त नहीं ली थी, वैसे ही पुलिस भी बिना बुलाये, बिना पूछे आयी थी। किसी भी विश्‍वविद्यालय में यह नहीं हो सकता।

लेकिन गुजरात की पुलिस ने कला संकाय में बिना इजाज़त ज़बर्दस्‍ती घुस आये और परीक्षा के लिए बनाये गये चित्रों पर एतराज़ करने और उपद्रव मचाने वाले विश्‍व हिंदू परिषद कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। वह पकड़ कर ले गयी बेचारे उस चंद्रमोहन को, जिसके बनाये गये चित्रों पर इन धार्मिक और नैतिक भावनओं वाले कार्यकर्ताओं को एतराज़ था। उस पर भारतीय दंड विधान की धारा 153 ए और 295 के तहत आरोप लगाये गये। अब न तो यह एक आम जनता के लिए खुली सार्वजनिक प्रदर्शनी थी, न चंद्रमोहन ने ये चित्र सबके देखने के लिए बनाये थे। इनसे सार्वजनिक शांति और समरसता और लोगों की भावनाओं के आहत होने का सवाल कहां पैदा होता है? इनसे किसी को एतराज़ हो सकता था, तो कला संकाय के शिक्षकों और छात्रों को होना चाहिए था। लेकिन होता तो क्‍या ये लोग प्रदर्शनी में उन्‍हें रखने देते? और पुलिस के चंद्रमोहन को पकड़ कर ले जाने और प्रदर्शनी हटाने और उसके लिए जनता से माफी मांगने के कुलपति के आदेश का ऐसा विरोध करते? प्रोफेसर शिवजी पणिक्‍कर को कुलपति ने इसलिए निलंबित किया कि वे डीन थे और कुलपति के कहने पर उनने प्रदर्शनी बंद नहीं की, न उन चित्रों के लिए माफी मांगने को तैयार हुए। पणिक्‍कर अपने देश के विख्‍यात कला इतिहासकार और कला मर्मज्ञ हैं। वे और कला संकाय के छात्र चंद्रमोहन के साथ आज भी खड़े हैं।

लेकिन गुजरात पुलिस ही उपद्रवियों को पकड़ने के बजाय चंद्रमोहन को पकड़ कर नहीं ले गयी, बल्कि विश्‍वविद्यालय के कुलपति मनोज सोनी भी इस सारे मामले में अपने छात्रों और शिक्षकों का साथ देने के बजाय विश्‍व हिंदू परिषद के उपद्रवियों के साथ हो गये। उनने कला संकाय में जबरन घुस आये और परीक्षा के काम में दखल देने वाले कार्यकर्ताओं के खिलाफ पुलिस में रपट तक नहीं लिखवायी। बल्कि वे संकाय को प्रदर्शनी बंद करने और डीन पणिक्‍कर से चंद्रमोहन के चित्रों के लिए सार्वजनिक माफी मांगने के आदेश दे आये। और जब पणिक्‍कर ने आदेश नहीं माने तो उन्‍हें निलंबित कर दिया। चंद्रमोहन के खिलाफ पुलिस कार्रवाई में अदालत में विश्‍वविद्यालय ने अपने छात्र का बचाव तक नहीं किया। पांच रात चंद्रमोहन जेल में बिता कर ज़मानत पर छूटा। पहली बार संघ परिवारियों ने अदालत में चंद्रमोहन की ज़मानत पर सुनवाई तक नहीं होने दी। चंद्रमोहन के पक्ष में प्रदर्शन करने आये देश भर के कलाकारों को विश्‍वविद्यालय ने अंदर आने तक नहीं दिया।

आप साफ देख सकते हैं कि वडोदरा की पुलिस और महाराजा सयाजीराव विश्‍वविद्यालय के कुलपति विश्‍व हिंदू परिषद के नीरज जैन जैसे कार्यकर्ताओं के साथ खड़े हैं। और लालकृष्‍ण आडवाणी जैसे जंग लगे लौहपुरुष कह रहे हैं कि चंद्रमोहन जैसे कलाकार ‘अश्‍लील और अशोभनीय’ चित्र बना कर हमारी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने के लिए स्‍वतंत्र नहीं हैं। एक विश्‍वविद्यालय के कला संकाय के छात्र ने अपनी डिग्री के लिए जो चित्र शिक्षकों के आकलन के लिए बनाये, उनसे नीरज जैन जैसे निठल्‍लों की धार्मिक भावनाएं आहत हुईं और उनने इसे राष्‍ट्रीय मामला बना दिया। कला के एक छात्र और शिक्षकों के बीच के परीक्षा कार्य में विश्‍व हिंदू परिषद, भाजपा और गुजरात सरकार का क्‍या दखल होना चाहिए? सिवाय इसके कि इनकी इच्‍छा है कि सिद्ध कलाकार ही नहीं, छात्र भी ऐसे चित्र बनाएं, जो हमारे तय किये ढांचें में फिट होते हों। जी, यही फासिस्‍ट इच्‍छा है और पता न हो तो जर्मनी और इटली के लोगों से पूछ लो।

अब संघ संप्रदायी, वकील और पैरोकार कहते हैं कि यह सवाल कलाकार की सृजन स्‍वतंत्रता का नहीं, किसी के भी ईश्‍वर निंदा/धर्म निंदा करने का अपराध का है। चंद्रमोहन ने तो वे चित्र सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए नहीं बनाये थे, लेकिन मंदिर बनाने वालों ने खजुराहो, कोणार्क और भुवनेश्‍वर के मंदिर सबके और धर्म के लिए बनाये। चंद्रमोहन का एक भी चित्र इन मंदिरों की कई मूर्तियों के सामने नहीं टिकेगा। और छोड़‍िए इन मंदिरों को, और हमारे पौराणिक साहित्‍य को- कभी सोचा है अरुण जेटली, कि महादेव का ज्‍योतिर्लिंग किसका प्रतीक है और जिस पिंडी पर यह लिंग स्‍थापित किया जाता है, वह किसकी प्रतीक है। क्‍या हिंदुओं के धर्म और देवी-देवताओं को सामी और संगठित इस्‍लाम या ईसाइयत समझ रखा है, जिसमें किसी पैगंबर की मूरत बनाना वर्जित हो। थोड़ा अपना धर्म और जीवन परंपरा को समझो। यूरोप और अरब की नकल मत करो।
कागद कारे, 20 मई 2007

क्योंकि हॉकी क्रिकेट नहीं है


क्योंकि हॉकी क्रिकेट नहीं है
आलोक तोमर
कवंर पाल सिंह गिल को लगता है कि जीते जी मोक्ष प्राप्त हो चुका है। लगभग अस्सी साल में पहली बार भारत की हॉकी टीम ओलंपिक जीतना तो दूर, वहां के मैदान में जाने लायक भी नहीं बची और इस पर जब गिल साहब की राय पूछी गई, तो उनका कहना था कि वे वक्त आने पर जवाब देंगे। भारत के राष्ट्रीय खेल को मोहल्ला स्तर का गिल्ली-डंडा बना देने वाले महारथियों से ऐसे ही जवाब की उम्मीद थी। गिल साहब से तो और भी क्योंकि वे भारतीय हॉकी फैडरेशन के अध्यक्ष जरूर हैं, लेकिन उनका ज्यादातर समय या तो जाम के साथ बीतता है या जाम के बाद होने वाली उनकी हरकतों की वजह से अदालतों में माफी मांगते हुए।

आज हॉकी के लिए और इसीलिए देश के लिए शर्मनाक दिन तो है ही, मगर आखिरी बार हॉकी का विश्व कप जीतने वाली टीम के कप्तान और बाद में नेता बन गए असलम शेर खान का गुस्सा भी कम जायज नहीं है। खान कहते हैं कि जितने भी खेल एसोसिएशन या फैडरेशन हैं, उनमें खिलाड़ियों के लिए कोई जगह नहीं है। हालांकि यह बात सबके लाड़ले क्रिकेट पर भी लागू होती है, मगर क्रिकेट दनादन आगे बढ़े जा रही है और हॉकी खेलने वालों को कुछ ऐसी नजर से देखा जाता है, जैसे हवाई जहाज में चलने वाले उतरते समय रन वे के पास बनी झुग्गियों को देखते हैं।

सवाल सिर्फ यह नहीं है कि हॉकी की इतनी दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है। क्रिकेट को छोड़ कर और एक हद तक टेनिस और शतरंज के अलावा अपने देश में लगता ही नहीं कि कोई खेल खेला जाता है। अगर शक हो तो आने वाले कॉमनवैल्थ खेल देख लीजिएगा, जिसमें मेजबान हम होंगे और सारे मैडल मेहमान ले जाएंगे। क्रिकेट की निंदा करने का कोई इरादा नहीं है लेकिन जो बात सच है, वह कहे बिना रहा भी नहीं जा सकता। आपने देखा कि टीम इंडिया के सितारे आस्टे्रलिया को उसी की जमीन पर निपटा कर भारत लौटे, तो उनकी दीन-दुनिया ही बदल गई। साइकिलों पर चलने वाले जहाज चार्टर करने की हालत में आ गए और उनका अभिनंदन ऐसे किया गया, जैसा करगिल के विजेताओं का भी नहीं किया गया था।

उधर हॉकी की दशा देखिए। हॉकी का बड़े से बड़ा टूर्नामेंट जीत लिया जाए, तो भी भारत सरकार डेढ़ लाख से ले कर चार लाख रुपए से ज्यादा का इनाम नहीं देती। यह इनाम भी टीम के चौदह खिलाड़ियों में बंट कर कितना रह जाता होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। हॉकी के खिलाड़ियों को विदेश भेजने के लिए सरकार के पास अपवाद स्वरूप ही पैसे होते हैं। उनके प्रशिक्षण के लिए स्टेडियम इसीलिए नहीं मिलते क्योंकि उन्हें हमारे देश के शाही खेल में बुक करवाया हुआ होता है।

भारत ने पहली बार 1928 में एर्म्स्टडम में ओलंपिक में टीम उतारी थी और हालैंड को तीन गोल से हरा कर स्वर्ण पदक जीता था। हारने वाली टीम को तो एक भी गोल दागने का मौका नहीं दिया गया। 1928 से 1956 के बीच के 28 सालों में भारत ने ओलंपिक में लगातार छह स्वर्ण पदक जीते और इस पूरे दौर में भारत ने चौबीस ओलंपिक मैच खेले, सारे जीते और कुल 178 गोल दागे। पहली बार 1960 में इन 28 जीतों के बाद भारत सिर्फ एक गोल से रोम ओलंपिक में पाकिस्तान से हार गया था। संयोग से इसी ओलंपिक में भारत के अभी तक के सबसे तेज धावक माने जाने वाले मिल्खा सिंह सेंकेंड के लगभग सौवें हिस्से से पदक पाने से चूक गए थे।

अगले ओलंपिक में यानी 1964 में टोक्यो में भारत ने अपना स्वर्ण पदक वापस ले लिया और आखिरी स्वर्ण पदक 1980 में मॉस्को में जीता गया था। इसके बाद की पतन गाथा आपको मालूम ही है। हम किंवदंतियों और भूली हुई दंत कथाओं की तरह ध्यानचंद और कुंवर दिग्विजय सिह बाबू को याद करते हैं। इन दोनों को जादूगर कहा जाता है। 1949 में जब बाबू भारतीय टीम के कप्तान थे तो दुनिया की सभी टीमों ने मिल कर जो 236 गोल किए थे, उनमें से 99 सिर्फ बाबू के थे।

ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार भी भारतीय टीम में थे और शानदार खिलाड़ी माने जाते थे। ध्यानचंद के बारे में तो यह मशहूर है कि गेंद उनकी स्टिक से चिपकी रहती थी और गोल तक पहुंच कर ही छूटती थी। कई शिकायतों के बाद उनकी स्टिक की जांच भी की गई कि कहीं इसमें कोई चुंबक तो नहीं लगा हुआ है। उनके छोटे भाई रूप सिंह भी उसी टीम में थे और सबसे तेज खिलाड़ियों में से एक थे। हॉकी के प्रति रूप सिंह का समर्पण इस हद तक था कि वे झांसी से बस में बैठ कर भिंड में लगभग दो सौ किलोमीटर की यात्रा करके हमारे स्कूल में हॉकी सिखाने आते थे और हॉस्टल के एक कमरे में जमीन पर सोते थे। खाना भी वे इटावा रोड के एक ढाबे में खाते थे।

अब तो हॉकी हमारे लिए मुगल काल के इतिहास की तरह कोई पुरानी याद बन कर रह गई है। भारतीय हॉकी फैडरेशन की हालत इतनी खराब है कि उसकी बैठकों में या तो लोग पहुंचते नहीं हैं या पहुंच कर फिर झगड़ा करते हैं। अपने तानाशाह रवैये के लिए मशहूर कंवर पाल सिंह गिल और भारतीय फैडरेशन के महासचिव ज्योति कुमारन को तो अंदाजा भी नहीं है कि दुनिया में लोग भारतीय हॉकी का कितना मजाक उड़ा रहे हैं। यह बात अलग है कि पूरी दुनिया में हॉकी की दशा खराब है क्योंकि यह क्रिकेट नहीं है। सच तो यह है कि 2012 के लंदन ओलंपिक में हॉकी को शामिल किए रखने के बारे में बाकायदा मतदान हुआ और सिर्फ एक वोट से हॉकी बची रह गई। यह एक वोट भारत का नहीं था क्योंकि भारतीय प्रतिनिधि इस बैठक में जाने के लिए टिकट खरीदने का पैसा भारत के खेल मंत्रालय ने मंजूर नहीं किया था। इसीलिए किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आखिरी ओलंपिक हमने 1980 में जीता था और आखिरी विश्व कप 1975 में।

महिला हॉकी पर चक दे इंडिया बनी तो अचानक लोगों को लगा कि हॉकी का जमाना वापस आ रहा है। फिल्म बनाने वालों ने पैसा कूट लिया और शाहरुख खान को फिल्म फेयर में सबसे अच्छी एक्टिंग का अवॉर्ड मिल गया। मिलना भी चाहिए था। जिस खेल की देश में इतनी दुर्दशा हो, उसमें इतने उत्साह का अभिनय कोई करामाती अभिनेता ही कर सकता है। यहां यह मत भूलिए कि हॉकी के स्वयभूं ब्रांड एम्बेसडर कहे जाने वाले शाहरुख खान को जब मौका मिला, तो उन्होंने पैसा लगाने के लिए क्रिकेट को चुना। आखिर धंधा अलग है और जोश और जुनून अलग। अभी संसद चल रही है और सरकार चाहे तो हॉकी की बजाय क्रिकेट को राष्ट्रीय खेल बनाने का विधेयक ला सकती है। आखिर 2010 में भारत में ही हॉकी का विश्व कप होना है और 2008 में हम बीजिंग ओलंपिक के मैदान तक नहीं पहुंच सके।
(शब्दार्थ)

Sunday, March 9, 2008

शलाका को प्रभाष सम्मान

प्रभाष जी को ये सम्मान लेना ही नहीं चाहिए था. उनके पहले सरकारी भांड- मीरासियों को यह मिला है और अब संस्थान ने अपनी वैधता और मह्त्वा बनाये रखने के लिए प्रभाष जी का नाम जोड़ दिया. टका पैसा हमारे गुरु को मोहता नहीं, नाम सम्मान देने वालों से कई गुना ज्यादा है, इस से बड़े सम्मानों के वे निर्णायक रहे हैं और सच तो ये है कि उनके कद को देखते हुए ये तो मोहल्ला स्तर का सम्मान है. प्रभाष जी हिन्दी में संज्ञा नहीं रह गए अलंकार हो गए हैं. अलंकारों को कैसा सम्मान? मेरे गुरु ने जो शिष्य परम्परा, बिना करमा कांडी दीक्षा दिए, बनायी है, उसके लिए उन्हें मिलने वाला कोई भी सम्मान ख़ुद सम्मानित हो ले तो हो ले, प्रभाष जी का सम्मान वो क्या बढायेगा?

हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में योगदान के लिए साल 2007-08 का शलाका सम्मान वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी को दिया जाएगा.

शलाका सम्मान हिंदी अकादमी को ओर से दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है. प्रभाष जोशी ने जनसत्ता को आम आदमी का अखबार बनाया. उन्होंने उस भाषा में लिखना-लिखवाना शुरू किया जो आम आदमी बोलता है. देखते ही देखते जनसत्ता आम आदमी की भाषा में बोलनेवाला अखबार हो गया. इससे न केवल भाषा समृद्ध हुई बल्कि बोलियों का भाषा के साथ एक सेतु निर्मित हुआ जिससे नये तरह के मुहावरे और अर्थ समाज में प्रचलित हुए.

नवंबर 1983 में वे जनसत्ता से जुड़े (एजेंसी में लिसने भी ये ख़बर लिखी है उसे शर्मिन्दा होना चाहिए. प्रभाष जी जनसत्ता से जुड़े नहीं थे, उसे जन्म दिया था. और एक्सप्रेस की प्रधान संपादकी का प्रस्ताव तज कर दिया था.)और इस अखबार के संस्थापक संपादक बने. नवंबर 1995 तक वे अखबार के प्रधान संपादक रहे लेकिन उसके बाद वे हाल फिलहाल तक जनसत्ता के सलाहकार संपादक के रूप में जुड़े रहे. उन्होंने अपनी लेखनी से राष्ट्रीयता को लगातार पुष्ट किया. वैचारिक प्रतिबद्धता का जहां तक सवाल है तो उन्होंने सत्य को सबसे बड़ा विचार माना. इसलिए वे संघ और वामपंथ पर समय-समय पर प्रहार करते रहे. अब तक उनकी प्रमुख पुस्तकें जो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं वे हैं- हिन्दू होने का धर्म, मसि कागद और कागद कारे. अभी भी जनसत्ता में उनका नियमित कालम कागद कारे छपता है.

आलोक तोमर

Friday, March 7, 2008

अन्नदाता दुखी भव:


अन्नदाता दुखी भव:
28 February, 2008 03:50:00 प्रभाष जोशी
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इस देश में किसानों का हितैषी कोई नहीं है कर्ज माफ करेवाले भारतीय किसान की प्रजाति को नष्ट करके रेंचहाउस वाले कंपनी किसान लाना चाहते हैं. उनके बिना भारत अमेरिका बने भी तो कैसे?

जब हजारों साल से धैर्य के साथ अपनी धरती पर टिके रहनेवाले भारतीय किसानों ने आत्महत्या करना शुरू किया तो हमारे राजनेताओं ने उनकी हालत को इस तरह से देखा मानों मुर्गियों के बुखार से मरने की बीमारी आ गयी हो. बुखार आया तो मुर्गियों को तो मरना ही है. उनके लिए और कुछ नहीं किया जा सकता. यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है. खेती-किसानी कालबाह्य हो गयी है. जो इससे लगा रहेगा, जायेगा. इसमें भावुक होने की जरूरत नहीं है. किसान हमारा अन्नदाता था. शायद है भी. लेकिन अब उसे जाना है. कृषि संस्कृति और सभ्यता का जमाना गया. अब उद्योग ही नहीं उत्तर आधुनिक उद्योग का जमाना आ गया है.

इतिहासचक्र के समझदार दर्शक बने हमारे नेता खेती किसानी की चिंता छोड़ने में यह भी याद नहीं रख पाये कि सत्तर फीसदी लोग अभी भी गांव में रहते हैं. देश के साठ प्रतिशत मजदूर किसानी से रोजगार पाते हैं. भारत की तो छोड़िये संसारभर का उद्योग साठ करोड़ लोगों को नहीं खपा सकता. जैसे जैसे आर्थिक तरक्की हो रही है रोजगार कम होते जा रहे हैं. ऐसे में ये साठ करोड़ लोग क्या करेंगे? हमारे आईटी गिरमिटिया को ही सभ्य देश कितना ठोक-बजाकर लेते हैं तो फिर इन कौशलविहीन किसानों को कौन विकसति देश अपने यहां आने देगा? यह हम देख रहे हैं. और आबादी के आधे लोग उजड़ गये तो क्या शासन व्यवस्था और समृद्धि रह सकेगी? महानगरों की एक ईंट साबूत नहीं बचेगी.

इतिहास चक्र के मूकदर्शक आज तक नहीं समझा सके कि मार्क्स की भविष्यवाणी से तो सबसे पहले सर्वहारा क्रांति इंग्लैण्ड में होनी थी. आज तक नहीं हुई. रूस में होकर सत्तर साल बाद फिर प्रतिक्रांति हो गयी. हम यह क्यों नहीं समझते कि जिस खेती किसानी पर सत्तर फीसदी लोग जीते हैं वह उनकी जीवनपद्धति है. उससे एक महान संस्कृति बनी और टिकी हुई है. क्या हम भी अपने लोगों को वैसे ही उजाड़ कर उनके संसाधन छीन रहे हैं जैसे यूरोप के लोगों ने रेड इंडियन के साथ अमेरिका में किया? क्या हम अपने ही देश को अमेरिका, यूरोप बनाने के चक्कर में वैसे ही बर्बाद करेंगे जैसे साम्राज्यवादी हमलावर करते आये हैं. आखिर हम डब्ल्यूटीओ के प्रावधानों से उपजे संकट से उनकी रक्षा क्यों नहीं करते, क्यों हमनें उन्हें बाजररूपी भेड़िये के सामने चारा बनाकर फेंक दिया है? पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था का कोई ऐसा मॉडल नहीं है जो 60 करोड़ लोगों को उनकी मर्जी के मुताबिक रोजी-रोटी दे सके.

अगर अमेरिका अमरीकियों की जीवनशैली से समझौता नहीं करता भले ही दुनिया का पर्यावरण नष्ट हो जाए तो क्या अपने लोगों को बचाने के लिए हम आवाज भी नहीं उठा सकते? दो टूक कहने के लिए आर्थिक और सैनिक शक्ति होना जरूरी नहीं होता. हमने जब अंग्रेजों से कहा कि आप भारत छोड़िये तो हमारे पास दृढ़ निश्चय के अलावा क्या था? तब डटे रह सकते थे तो अब क्यों नहीं? अब ऐसा इसलिए नहीं हो रहा है क्योंकि हमारे प्रभुवर्ग को अमेरिकी जीवनशैली और भोग-विलास चाहिए. इसके लिए वे अपने ही गरीब लोगों को दांव पर लगा रहे हैं. अमेरिका और यूरोप अपने संपन्न किसानों को बचाने के लिए सब्सिडी देते हैं और हम अपने गरीब किसानों की सब्सिडी काट लेते हैं. जब कोई किसान आत्महत्या करता है तो इसलिए नहीं कि वह कर्ज के बोझ तले दबा है, बल्कि इसलिए कि उसको बचानेवाला कोई नहीं है. बिजनेस के नाम पर अपने ही लोग उसे लूटते हैं.

किसान की खेती अलाभदायक बना दी गयी है. खुद किसान के लिए खेती नुकसानवाला धंधा हो गयी है. ऐसा अपने आप नहीं हुआ है. सरकार ने लगातार इस तरह की नीतियां बनाई हैं कि किसान कंगाल होता जाए. अब उसके सामने दो ही रास्ते हैं. या तो वह आत्महत्या करे या खेती-बाड़ी किसी कंपनी को बेचकर शहर की किसी गंदी बस्ती का सहारा ले ले. रिक्शा चलाए या अपराध के धंधे से कमाई करे. इक्कीसवीं सदी में महाशक्ति बनते भारत में यही उसकी नियति है.

(कागद कारे का संपादित अंश)

भगत सिंह की वैचारिक हत्‍या के हिस्‍ट्रीशीटर हैं राजकिशोर

भगत सिंह की वैचारिक हत्‍या के हिस्‍ट्रीशीटर हैं राजकिशोर
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 4:13 pm

पिछली प्रविष्टि से आगे…

राजकिशोर द्वारा भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या का यह पहला प्रयास नहीं है। इससे पहले भी वह लगभग दो साल पहले जनसत्‍ता के संपादकीय पृष्‍ठ को माध्‍यम बना कर यह काम कर चुके हैं । खैर उसकी बात लेख के अंत में करेंगे फिलहाल इस बार के लेख में राजकिशोर संविधान के निर्माण के जरिए भगतसिंह के सम्‍मान और संविधान सभा में गहरी और ईमानदार बहस की बात कर रहे है। सबसे महत्‍वूपर्ण बात यह है कि भगतसिंह समेत एचएसआरए के क्रांतिकारी न केवल यह मानते थे कि राष्‍ट्रीय मुक्तिसंघर्ष का लक्ष्‍य समाजवाद की स्‍थापना होनी चाहिए, बल्कि वे पूरे साम्राज्‍यवादी विश्‍व में एक राष्‍ट्र द्वारा दूसरे राष्‍ट्र के शोषण के भी विरोधी थे और अपनी लड़ाई सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेशवाद से नही बल्कि साम्राज्‍यवाद की विश्‍व व्‍यवस्‍था से मानते थे और भारत में भी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्‍व की स्‍थापना को अपना लक्ष्‍य मानते थे। और इस दौर में भी भगतसिंह और उनके साथी इस बात को समझने लगे थे कि कांग्रेस के झण्‍डे तले गांधी जी ने व्‍यापक जनता के एक बड़े हिस्‍से को भले ही जुटा लिया हो, पर कांग्रेस उनके हितों की नुमाइन्‍दगी नहीं करती, बल्कि देशी धनिक वर्गों के हितों की नुमाइन्‍दगी करती है और यह कि कांग्रेस की लड़ाई का अंत किसी न किसी समझौते के रूप में ही होगा। ऐसे मे संविधान के निर्माण और संविधान सभा की इन ‘’ईमानदार बहसों’ से ब्रिटिश साम्राज्‍यवाद और भारतीय पूंजीवाद के अंत को अपना आदर्श मानने वाले भगतसिंह के विचारों का सम्‍मान हुआ या घोर अपमान इसकी असलियत संविधान के निर्माण की प्रक्रिया के इतिहास पर रोशनी डाल कर पहचानी जा सकती है। लेकिन उससे पहले यह पढ़ लीजिए:

1931 में भगतसिंह और उनके साथियों द्वारा तैयार ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ में कहा गया है, ” क्रान्ति से हमारा क्‍या आशय है…जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्‍तव में यही है ‘क्रान्ति’, बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को ही आगे बढ़ाते हैं…।”

संविधान के निर्माण की प्रक्रिया

मार्च, 1946 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने अपने मंत्रिमण्‍डल के तीन सदस्‍यों का प्रतिनिधिमण्‍डल भारत भेजा जिसे प्रमुख राजनीतिक दलों, गणमान्‍य नागरिकों और देशी रियासतों के प्रमुखों से विचार-विमर्श के बाद सत्‍ता-हस्‍तान्‍तरण की योजना तैयार करनी थी। 16 मई 1946 को ‘कैबिनेट मिशन’ नाम से प्रसिद्ध उस दल ने अपनी योजना घोषित की जिसे सभी पक्षों ने स्‍वीकार किया। कैबिनेट मिशन की मूलभूत शर्तें इस प्रकार थीं:

1. भारत का बंटवारा नहीं होगा। इसका ढांचा संघीय होगा। 16 जुलाई, 1948 को सत्‍ता हस्‍तान्‍तरित की जायेगी। इसके पूर्व संघीय भारत का संविधान तैयार कर लिया जायेगा।

2. संविधान लिखने के लिए 389 सदस्‍यों की संविधान सभा का गठन किया जायेगा जिसमें 89 सदस्‍य देशी रियासतों के प्रमुखों द्वारा मनोनीत किये जायेंगे।

3. शेष 300 सदस्‍यों का चुनाव ब्रिटिश शासित प्रान्‍तों की विधायिका के सदस्‍यों द्वारा किया जायेगा। इन 300 में से मुसलमानों के लिए आरक्षित 78 सीटों का चुनाव मुस्लिम समुदाय द्वारा ही किया जायेगा।यहां यह बात उल्‍लेखनीय है कि ब्रिटिश शासित प्रान्‍तों की विधानसभाओं के सदस्‍यों का चुनाव ‘भारत सरकार अधिनियम – 1935’ के अनुसार सीमित मताधिकार के आधार पर हुआ था। उक्‍त अधिनियम के अनुसार मात्र 15 प्रतिशत व्वयस्‍क नागरिकों को ही मत देने का अधिकार था (जो कुल आबादी के 0.5 प्रतिशतही थे)। शेष 85 प्रतिशत नागरिक मताधिकार से वंचित थे।

4. संविधान सभा सम्‍प्रभुता सम्‍पन्‍न नहीं होगी। वह कैबिनेट मिशन प्‍लान 1946 के अन्‍तर्गत संविधान लिखेगी जिसे लागू करने के लिए ब्रिटिश सरकार की स्‍वीकृति अनिवार्य होगी।

5.इस दौरान भारत का शासन प्रबन्‍ध भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत होता रहेगा जिसके लिए केन्‍द्र में एक सर्वदल समर्थित अन्‍तरिम सरकार गठित की जाएगी।

जुलाई, 1946 में संविधान सभा का चुनाव हुआ जिसमें कांग्रेस को 199 सीटें और 13 का समर्थन प्राप्‍त हुआ , मुस्लिम लीग को 72 सीटें मिलीं तथा 16 पर अन्‍य विजयी हुए। बाद में हालात ऐसे बने कि मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बॉयकाट कर दिया और पाकिस्‍तान की मांग को लेकर ‘सीधी कार्रवाई’ का ऐलान कर दिया । सितम्‍बर, 1946 में अन्‍तरिम सरकार का गठन हुआ जिसके प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू बने। 9 दिसम्‍बर को को संविधान सभा की पहली बैठक बुलाई गई, जिसमें राजेंद्र प्रसाद को अध्‍यक्ष चुना गया। 13 दिसम्‍बर को संविधान की प्रस्‍तावना पेश की गई और 22 जनवरी 1947 को उसे स्‍वीकार किया गया। लीग और रियासतों के मनोनीत प्रतिनिधियों के बॉयकाट के बाद (महज 15 प्रतिशत नागरिकों द्वारा निर्वाचित) संविधान सभा के कुल 55 प्रतिशत सदस्‍यों ने उसे स्‍वीकार किया। विभाजन के बाद इसी प्रस्‍तावना को भारतीय संविधान की दार्शनिक आधारशिला के रूप में स्‍वीकार किया गया। उल्‍लेखनीय है कि 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा ने प्रस्‍तावना को ब्रिटिश सरकार की स्‍वीकृति के लिए भेजने के लिए पारित किया था क्‍योंकि उस समय वह ब्रिटिश संसद के मातहत ही काम कर रही थी। 15 अगस्‍त 1947 को भारत को अधिराज्‍य घोषित कर दिया गया। डोमेनियन इसलिए कि संविधान तैयार होने तक, इनका शासन-प्रबन्‍ध ब्रिटिश संसद द्वारा पारित ‘भारत सरकार अधिनियम 1935’ से ही संचालित होना था।1946 में गठित उसी संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान के आधार पर 26 जनवरी, 1950 को भारत को जनतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया गया और इसके भी तीन वर्षों पश्‍चात 1952 में देश के पहले आम चुनाव हुए।

तो यह थी संविधान सभा और संविधान निर्माण की प्रक्रिया, यह सच्चाई दिन के उजाले की तरह साफ है कि संविधान सभा को संविधान बनाने के लिए, भारतीय जनता ने नहीं बल्कि ब्रिटिश संसद ने अधिकृत किया था। उक्त संविधान सभा का चुनाव सार्विक मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष चुनाव के द्वारा नहीं, बल्कि15 फीसदी उच्‍चवर्गीय नागरिकों द्वारा परोक्ष चुनाव की विधि से हुआ था। यह बात भी केवल ब्रिटिश शासित प्रान्तों के दो तिहाई भूभाग के लिए लागू होती है। एक तिहाई भूभाग वाले देशी रियासतों के इलाकों से प्रतिनिधियों को मनोनीत किया गया था-राजाओं-नवाबों के द्वारा।भारत के लोगों द्वारा भारतीय संविधान की पुष्टि कभी नहीं कराई गई, बल्कि संविधान के भीतर ही धारा 394 डालकर इसे पूरे देश की जनता पर थोप दिया गया। यहां तक कि ”केशवानंद भारतीय बनाम केरल राज्य” (19731) के मामले में उच्चतम न्यायालय के 13 जजों की संविधान पीठ के 12 सदस्यों ने एकमत से यह कहा है कि भारतीय संविधान के स्रोत भारत के लोग नहीं हैं बल्कि संविधान लिखने के अधिकार संविधान सभा को ब्रिटिश संसद ने दिया था। जस्टिस मैथ्यू ने स्पष्ट कहा है, ” यह सर्वविदित है कि संविधानकी प्रस्तावना में किया गया वायदा ऐतिहासिक सत्य नहीं है। अधिक से अधिक सिर्फ यह कहा जा सकता है कि संविधान लिखने वाले संविधान सभा के सदस्यों को मात्र 28.5 प्रतिशत लोगों ने अपने परोक्ष मतदान से चुना था और कौन ऐसा है जो उन्हीं 28.5 प्रतिशत लोगों को भारत मान लेगा?” इस संविधान के निर्माण की प्रक्रिया सच्चे अर्थों में जनवादी तभी हो सकती थी जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत की जनता सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा का चुनाव करती, या वह जिस विधायिका का चुनाव करती वह खुद ही संविधान सभा का भी काम करती अथवा संविधान सभा का चुनाव करती। भारतीय संविधान पश्चिमी पूंजीवादी उद़देश्‍यों के संविधानों से थोक भाव से जुमले उधार लेने और धुंआधार लफ्फाजी करने के बावजूद इस सच्चाई को छुपा नहीं पाता कि यह संविधान भारतीय जनता को अत्यंत सीमित जनवादी अधिकार प्रदान करता है और उन्हें भी छीन लेने के प्रावधान इसी के भीतर मौजूद हैं। शासक वर्ग के लिए आपातकाल के असीमित अधिाकारइसी संविधान के भीतर मौजूद हैं और घोषित मूलभूत अधिकारों को सीमित करने के रास्ते भी इसी के भीतर हैं। नीति निर्देशक सिध्दांतों के रूप में समाजवादी रंग-रोगन लगाते हुए संविधान में ”कल्याणकारी राज्य” के पश्चिमी पूंजीवादी मॉडलों की थोड़ी बहुत नकल भी की गई है, पर इन नीति निर्देशक सिंध्दांतों को मानने की कोई भी बाध्यता या लागू करने का कोई समयबध्द लक्ष्य शासक वर्ग के सामने नहीं रखा गया है और अब, आधी सदी बाद इन नीति-निर्देशक सिंध्दांतों को पढ़कर केवल ठठाकर हंसा ही जा सकता है। संविधान का मूल ढांचा वही है जो ब्रिटिश औपनिवेशक सत्ता ने तैयार किया था। वही आई.पी.सी, सी.आर.पी.सी, सम्पत्ति व उत्तराधिकार के वही कानून, कोर्ट-कचहरी का वही ढांचा, वही वकील-पेशकार, वही नजराना-शुकराना। आम नागरिक की स्थिति कानून व्यवस्था के सामने पुराने रैयतों जैसी ही है। और कानून-व्यवस्था से भी छन-रिसकर कुछ जनवादी और नागरिक अधिकार बचजाते हैं तो वे नौकरशाही और थाना-पुलिस की जेब में अटक जाते हैं।

ऐसे में भगतसिंह के नाम पर संविधान द्वारा प्रदत्‍त अधिकारों का हवाला देते हुए क्रांति की बात करना भगतसिंह कीवैचारिक हत्‍या की साजिश ही कही जा सकती है।भगतसिंह आम जनता के राज्‍य की बात करते थे और जिस संविधान का निर्माण ही मुट़ठीभर धनिक लोगों ने अपने ब्रिटिश आकाओं के रहमोकरम पर किया हो वह क्रांति की इजाजत देगा?वैसे भी राजकिशोर भगतसिंह की हत्‍या के मामले में हिस्‍ट्रीशीटर हैं। जी हां, आज से दो साल पहले जनसत्‍ता में ही उन्‍होंने इसीतरह का घृणित कार्य किया था जिसका जवाब भी सत्‍यम‍ ने दिया था। वह लेख मैंने तभी टाइप करके कम्‍प्‍यूटर में सुरक्षित रखा था। उसका शीर्षक फाइल करप्‍ट होने के कारण समझ नहीं आ रहा है लेकिन लेख जस का तस है।जनसत्में छपे राजकिशोर के हालिया लेख में दिए गए कुतर्कों को उजागर करने के लिए उस लेख के कुछ अंश भी हाजिर हैं:

‘जनसत्ता’ के 5 अक्टूबर के अंक में ‘भगतसिंह की ओट में’ राजकिशोर ने इतिहास के तथ्यों के साथ जमकर तोड़-मरोड़ की है। भगतसिंह के रास्ते में क्रान्तिकारी हिंसा का कोई स्थान नहीं था यह सिद्ध करने के लिए वह किन्‍हीं अनाम दस्तावेजों का जिक्र करते हैं। उनका दावा है कि ”हाल ही में प्रकाशित” भगतसिंह के दस्तावेजों से ”सूरज की रोशनी की तरह साफ है कि भगतसिंह का रास्ता हिंसा का रास्ता नहीं था।” उन्होंने ऐसे किसी दस्तावेज का नाम बताने की जरूरत नहीं समझी लेकिन अपने (कु) तर्कों के समर्थन में जिस एकमात्र लेख ”बम का दर्शन” का हवाला उन्होंने दिया है, आइये पहले उसी पर नजर डालते हैं।

‘बम का दर्शन’ दरअसल महात्मा गांधी के लेख ‘बम की पूजा’ के जवाब में क्रान्तिकारियों का पक्ष स्पष्ट करने के लिए लिखा गया था। भगवतीचरण वोहरा ने इसे लिखा था और भगतसिंह ने जेल में इसे अंतिम रूप दिया था। 26 जनवरी, 1930 को इसे देश भर में बांटा गया था। इसमें भगतसिंह साफ-साफ लिखते हैं, ”क्रान्तिकारियों का विश्वास है कि देश को क्रान्ति से ही स्वतंत्रता मिलेगी। वे जिस क्रान्ति के लिए प्रयत्नशील हैं और जिस क्रान्ति का रूप उनके सामने स्पष्ट है, उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों और उनके पिट्ठुओं से क्रान्तिकारियों का केवल सशस्त्र संघर्ष हो, बल्कि इस सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिए मुक्त हो जायें” (भगतसिंह और साथियों के दस्तावेज, सं. जगमोहन सिंह व चमनलाल, राजकमल प्रकाशन, पृ. 369)Aइसी लेख में आगे एक बार फिर एकदम स्पष्ट शब्दों में कहा गया है, ”क्रान्तिकारी तो उस दिन की प्रतीक्षा में हैं जब कांग्रेसी आन्दोलन से अहिंसा की यह सनक समाप्त हो जायेगी और वह क्रान्तिकारियों के कंधो से कंधाा मिलाकर पूर्ण स्वतंत्राता के सामूहिक लक्ष्य की ओर बढ़ेगी (उपरोक्त, पृ. 373)। इसी लेख में भगतसिंह ने एक अपील की है कि जिसे आज पढ़ते हुए लगेगा मानो वह राजकिशोर जैसे लोगों को ही संबोधिात हो, ”हम प्रत्येक देशभक्त से निवेदन करते हैं कि वे हमारे साथ गम्भीरतापूर्वक इस युध्द में शामिल हों। कोई भी व्यक्ति अहिंसा और ऐसे ही अजीबो-गरीब तरीकों से मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर राष्ट्र की स्वतंत्राता से खिलवाड़ न करे (उपरोक्त, पृ. 376)Aये चंद पंक्तियां ही नहीं पूरा लेख गांधी जी के अहिंसक रास्ते के बरक्स क्रान्तिकारियों के सशस्त्र प्रतिरोधों के रास्ते की वकालत करता है। लेकिन राजकिशोर लिखते हैं, ”’बम का दर्शन’…बराबर उपलब्ध रहा है। इसके बावजूद, दुर्भाग्यवश, भगतसिंह की छवि सशस्त्र प्रतिरोधों के दावेदार की बनी हुई है।” अब इसे क्या माना जाये? या तो इस सर्वसुलभ लेख का हवाला देने से पहले राजकिशोर ने इसे पलटकर भी नहीं देखा, या फिर उनकी ”नीयत” के बारे में राजेन्द्र यादव की टिप्पणी पर यकीन किया जाये?

अगर राजकिशोर का इरादा हिंसा-अहिंसा के प्रश्न पर, या भगतसिंह के रास्ते के सही या गलत होने पर बहस चलाने का होता, तो बात और थी। लेकिन वह बहस नहीं चलाते, आलोकधान्वा की कविता के बहाने वह क्रान्तिकारी हिंसा के रास्ते के विरुध्द फतवा देते हैं, और इसके लिए तथ्यों के साथ मनमाना तोड़-मरोड़ करते हैं।इसलिए आइये, इस बारे में भगतसिंह के विचारों की कुछ और बानगियाँ देखते हैं।

फांसी दिये जाने से ठीक तीन दिन पहले 20 मार्च 1931 को भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु ने पंजाब के गवर्नर को पत्रा लिखकर मांग की कि उन्हें फांसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये क्योंकि वे युध्दबंदी हैं। पत्र के शब्द थे :”…अंग्रेजों और भारतीय जनता के बीच युध्द छिड़ा हुआ है। …बहुत संभव है कि यह युध्द भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले। …यह तब तक खत्म नहीं होगा जब तक समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता।”जेल में लगातार अधययन और चिन्तन कर रहे भगतसिंह के दिमाग में भारतीय क्रान्ति के मार्ग की एक साफ तसवीर उभर रही थी जो कांग्रेस और गांधाी के रास्ते से एकदम अलग तो थी ही, भारतीय क्रान्तिकारियों की उस समय तक की राह से भी बिलकुल जुदा थी। फांसी से करीब एक महीना पहले लिखे ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ में भगतसिंह ने एक क्रान्तिकारी पार्टी बनाने के बारे में लिखा जिसकी ”मुख्य जिम्मेदारी यह होगी कि वे योजना बनायें, उसे लागू करें, प्रोपेगंडा करें, अलग-अलग यूनियनों में काम शुरू कर उनमें एकजुटता लायें, उनके एकजुट हमले की योजना बनायें, सेना व पुलिस को क्रान्ति-समर्थक बनायें और उनकी सहायता या अपनी शक्तियों से विद्रोह या आक्रमणकी शक्ल में क्रान्तिकारी टकराव की स्थिति बनायें, लोगों को विद्रोह के लिए प्रयत्नशील करें और समय पड़ने पर निर्भीकता से नेतृत्व दे सकें” (क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा, पूर्वोक्‍त, पृ. 403)। उपरोक्त कथन की व्याख्या किसी और अर्थ में करने की बात अगर कोई सोचे भी तो ‘मसविदे’ में ‘क्रान्तिकारी पार्टी’ उपशीर्षक के तहत दिया गया यह प्रस्ताव इसकी गुंजाइश खत्म कर देता है : ”ऐक्शन कमेटी : इसकारूप साबोताज, हथियार-संग्रह और विद्रोह का प्रशिक्षण देने के लिए एक गुप्त समिति। ग्रुप (क)नवयुवक : शत्रु की खबरें एकत्र करना, स्थानीय सैनिक सर्वेक्षण। ग्रुप (ख)विशेषज्ञ : शस्त्र-संग्रह, सैनिक प्रशिक्षण आदि” (पूर्वोक्त, पृ. 404)A लेखक: सत्‍यम

…………………………….समाप्‍त…………………..

Comments (2)
March 25, 2007
राजकिशोर द्वारा भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 10:00 pm

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राजकिशोर ने भगतसिंह की ही आड़ में भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या की है। उन्‍होंने बेहद ढिठाई से उस व्‍यवस्‍था (पूंजीवादी) के संविधान को क्रान्ति का कानूनी दस्‍तावेज बताया है जिसे भगतसिंह और उनके साथी बलपूवर्क उखाड़ने की बात कहते थे। 6 जून, 1929 को ‘बमकांड पर सेशन कोर्ट में बयान’ में भगतसिंह और बटुकेश्‍वर दत्‍त ने स्‍पष्‍ट तौर पर लिखा था, ‘‘देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्‍यकता है। और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्‍य है कि साम्‍यवादी सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निर्माण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्‍य द्वारा मनुष्‍य द्वारा मनुष्‍य का तथा एक राष्‍ट्र द्वारा दूसरे राष्‍ट्र का शोषण, जो साम्राज्‍यशाही के नाम से विख्‍यात है समाप्‍त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्‍लेशों से छुटकारा मिलना असंभव है, और तब तक युद्धों को समाप्‍त कर विश्‍व शांति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज ढोंग के अतिरिक्‍त कुछ भी नहीं है। क्रांति से हमारा मतलब अंततोगत्‍वा एक ऐसी समाज व्‍यवस्‍था की स्‍थापना से है जो इस बात के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का आधिपत्‍य सर्वमान्‍य होगा। जिसके फलस्‍वरूप स्‍थापित होने वाला विश्‍व संघ पीडि़त मानवता को पूंजीवाद के बंधनों से और साम्राज्‍यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा।

सामयिक चेतावनी

यह है हमारा आदर्श। इसी आदर्श से प्रेरणा लेकर एक सही तथा पुरजोर चेतावनी दी है। लेकिन अगर हमारी इस चेतावनी पर ध्‍यान नहीं दिया गया और वर्तमान शासन व्‍यवस्‍था उठती हुई जनशक्ति के मार्ग में रोड़े अटकाने से बाज न आई तो क्रां‍ति के इस आदर्श की पूर्ति के लिए एक भयंकर युद्ध छिड़ना अनिवार्य है। सभी बाधाओं को रौंदकर उस युद्ध के फलस्‍वरूप सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतंत्र की स्‍थापना होगी। यह अधिनायकतंत्र क्रांति के आदर्शों की पूर्ति के लिए मार्ग प्रशस्‍त करेगा।…’’

राजकिशोर इस बात का जवाब दें कि क्‍या भारतीय संविधान वर्तमान पूंजीवादी व्‍यवस्‍था पर अधिकार कर शोषण मुक्‍त समाज की स्‍थापना का अधिकार देता है? उस मेहनतकश वर्ग के अधिनायकत्‍व की स्‍थापना की स्‍वतंत्रता प्रदान करता है, जिसकी बात भगतसिंह ने की थी? अगर नहीं, तो उनके इस लेख को भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या कहना गलत नहीं होगा।

… जारी

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March 24, 2007
भगतसिंह के शहादत दिवस पर राजकिशोर का वैचारिक वमन
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 2:49 pm

लगता है अखबारों के लिए भाड़े पर कलम घिसते-घिसते राजकिशोर जी बौद्धिक दीवालिएपन के शिकार हो गए है और उनकी कलम बांझपन की। भगतसिंह के शहादत दिवस पर जनसत्‍ता में छपे उनके लेख से तो यही साबित होता है। 23 मार्च को भगतसिंह का शहादत दिवस था। इस मौके पर जनसत्‍ता ने प्रख्‍यात ”बुद्धिजीवी” राजकिशोर के वैचारिक वमन को अपने संपादकीय पृष्‍ठ पर पर्याप्‍त जगह दी। इस लेख में राजकिशोर ने भगतसिंह के उद्धरण देते हुए भारत के नौजवानों को प्रेरित (भ्रमित) करने की पुरजोर कोशिश है, मुझे लगता है कि इस लेख को पढ़ कर कोई क्रान्तिकारी बने या न बने, भ्रान्तिकारी जरूर बन जाएगा और अपने संपर्क में आने वाले और लोगों को भी राजकिशोर के वैचारिक विभ्रम का शिकार बनाएगा। चलिए! अब इन भ्रामक तथ्‍यों और विचारों का बिंदुवार विश्‍लेषण भी कर लिया जाए।

लेख के चौथे पैरा में (शुरुआती तीन पैरा में उजागर हुए उनके दिमागी ढुलमुलपन की चर्चा बाद में करेंगे)लिखा है, ”…भगत सिंह के चिंतन में हमें भारत की सभी समस्‍याओं का हल मिल जाता है। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे गांधी के विचार और आचरण में…।” भई, अलग-अलग वैचारिक धरातल पर भारतीय समस्‍याओं का समाधान बताने वालों का रास्‍ता एक नहीं हो सकता और ऐसे में तय करना पड़ता है कि किसका रास्‍ता सही और व्‍यावहारिक है और एक बार तय कर लेने के बाद उसी रास्‍ते पर चलना चाहिए। लेकिन राजकिशोर जी भगतसिंह और गांधी दोनों ही के रास्‍तों को भारत के लिए हितकारी बता रहे हैं, जबकि दोनों में कहीं भी वैचारिक साम्‍य नहीं था। अगर भगतसिंह के पास भारतीय समस्‍याओं का समाधान था, तो गांधी के नाम का जाप क्‍यों? अगर उनके पास हल नहीं था, तो राजकिशोर को दृढ़ता से गांधी के रास्‍ते पर चलने का आह्वान करना चाहए था, भगतसिंह के शहादत दिवस पर लगभग आधा पन्‍ना काला करने की क्‍या जरूरत थी। जहां तक रास्‍ते का सवाल है, जिस भगतसिंह के नाम की माला खुद राजकिशोर जप रहे है, उन्‍हीं भगतसिंह ने भी कहा था कि, ”गांधी एक दयालु मानवतावादी व्‍यक्ति हैं। लेकिन ऐसी दयालुता से सामाजिक तब्‍दीली नहीं आती…।” (जगमोहन और चमनलाल द्वारा संपादित उसी किताब, ‘भगतसिंह और उनके साथियों के दस्‍तावेज’, की भूमिका जिसका मनमाना प्रयोग राजकिशोर ने अपने लेख में किया है) लगता है, या तो राजकिशोर ने खुद कभी इस पुस्‍तक और भगतसिंह को पूरी तरह पढ़ा और समझा नहीं है या फिर जानबूझकर लोगों को भ्रमित करने की कोशिश कर रहे हैं।

उनकी मूखर्तापूर्ण दलीलें यहीं खत्‍म नहीं होती। आगे वो उपरोक्‍त पुस्‍तक से भगतसिंह का हवाला देते हुए क्रान्ति की स्पिरिट ताजा करने की बात करते हुए कहते हैं, ” हमारे पास तो क्रांति का एक कानूनी दस्‍तावेज भी है। यहां में यह याद दिलाना चाहता हूं कि स्‍वतंत्र भारत का संविधान बनाते समय हमारे पूर्वजों ने गांधी की बातों को लगभग नहीं माना, लेकिन उन्‍होंने भगतसिंह का पूरा सम्‍मान किया।यह सम्‍मान जान-बूझ कर या समझ-बूझ कर किया गया था, यह बात मानने लायक नहीं लगती। यह सम्‍मान अनजाने में ही हुआ और इसीलिए हुआ कि उस समय दुनिया भर में समाजवाद को ही सभी बंद तालों की एकमात्र कुंजी के रूप में देखा जा रहा था। इसमें कोई संदेह नहीं कि संविधान बनाते समय भारत के एक बड़े बौद्धिक और राजनीतिक वर्ग ने चरम प्रकार का आत्‍म-मंथन किया था। वे कोशिश कर रहे थे कि दुनिया की विभिन्‍न व्‍यवस्‍थाओं में जो कुछ श्रेष्‍ठ है, उसे अपने सर्वाधिक मूल्‍यवान राष्‍ट्रीय दस्‍तावेज में समेट लिया जाए।…संविधान सभा में जैसी गहरी और ईमानदार बहसें हुईं, उनकी परछाई भी अब देखने को नहीं मिलती।…”वाह भाई राजकिशोर! ‘निठल्‍ला चिंतन’ नाम का एक हिंदी चिट्ठा (ब्‍लॉग) इंटरनेट पर देखा था, लेकिन आपने वाकई में इस नाम को सार्थक कर दिया। इस नाम की एक वेबसाइट अपने नाम से रजिस्‍टर करा लीजिए, ज्‍यादा उचित होगा। खैर उनके इस मुक्‍त चिंतन पर टिप्‍पणी करने से पहले पंजाब के क्रांतिकारी कवि पाश की कविता ‘संविधान’ का उल्‍लेख करना मौजूं होगा:

यह पुस्‍तक मर चुकी है

इसे न पढ़ें

इसके शब्‍दों में मौत की ठण्‍डक है

और एक-एक पृष्‍ठ

जिन्‍दगी के आखिरी पल जैसा भयानक

यह पुस्‍तक जब बनी थी

तो मैं एक पशु था

सोया हुआ पशु…

और जब मैं जगा

तो मेरे इंसान बनने तक

यह पुस्‍तक मर चुकी थी

अब यदि इस पुस्‍तक को पढ़ोगे

तो पशु बन जाओगे

सोये हुए पशु।
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 4:13 pm

राजकिशोर द्वारा भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या का यह पहला प्रयास नहीं है। इससे पहले भी वह लगभग दो साल पहले जनसत्‍ता के संपादकीय पृष्‍ठ को माध्‍यम बना कर यह काम कर चुके हैं । खैर उसकी बात लेख के अंत में करेंगे फिलहाल इस बार के लेख में राजकिशोर संविधान के निर्माण के जरिए भगतसिंह के सम्‍मान और संविधान सभा में गहरी और ईमानदार बहस की बात कर रहे है। सबसे महत्‍वूपर्ण बात यह है कि भगतसिंह समेत एचएसआरए के क्रांतिकारी न केवल यह मानते थे कि राष्‍ट्रीय मुक्तिसंघर्ष का लक्ष्‍य समाजवाद की स्‍थापना होनी चाहिए, बल्कि वे पूरे साम्राज्‍यवादी विश्‍व में एक राष्‍ट्र द्वारा दूसरे राष्‍ट्र के शोषण के भी विरोधी थे और अपनी लड़ाई सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेशवाद से नही बल्कि साम्राज्‍यवाद की विश्‍व व्‍यवस्‍था से मानते थे और भारत में भी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्‍व की स्‍थापना को अपना लक्ष्‍य मानते थे। और इस दौर में भी भगतसिंह और उनके साथी इस बात को समझने लगे थे कि कांग्रेस के झण्‍डे तले गांधी जी ने व्‍यापक जनता के एक बड़े हिस्‍से को भले ही जुटा लिया हो, पर कांग्रेस उनके हितों की नुमाइन्‍दगी नहीं करती, बल्कि देशी धनिक वर्गों के हितों की नुमाइन्‍दगी करती है और यह कि कांग्रेस की लड़ाई का अंत किसी न किसी समझौते के रूप में ही होगा। ऐसे मे संविधान के निर्माण और संविधान सभा की इन ‘’ईमानदार बहसों’ से ब्रिटिश साम्राज्‍यवाद और भारतीय पूंजीवाद के अंत को अपना आदर्श मानने वाले भगतसिंह के विचारों का सम्‍मान हुआ या घोर अपमान इसकी असलियत संविधान के निर्माण की प्रक्रिया के इतिहास पर रोशनी डाल कर पहचानी जा सकती है। लेकिन उससे पहले यह पढ़ लीजिए:

1931 में भगतसिंह और उनके साथियों द्वारा तैयार ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ में कहा गया है, ” क्रान्ति से हमारा क्‍या आशय है…जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्‍तव में यही है ‘क्रान्ति’, बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को ही आगे बढ़ाते हैं…।”

संविधान के निर्माण की प्रक्रिया

मार्च, 1946 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने अपने मंत्रिमण्‍डल के तीन सदस्‍यों का प्रतिनिधिमण्‍डल भारत भेजा जिसे प्रमुख राजनीतिक दलों, गणमान्‍य नागरिकों और देशी रियासतों के प्रमुखों से विचार-विमर्श के बाद सत्‍ता-हस्‍तान्‍तरण की योजना तैयार करनी थी। 16 मई 1946 को ‘कैबिनेट मिशन’ नाम से प्रसिद्ध उस दल ने अपनी योजना घोषित की जिसे सभी पक्षों ने स्‍वीकार किया। कैबिनेट मिशन की मूलभूत शर्तें इस प्रकार थीं:

1. भारत का बंटवारा नहीं होगा। इसका ढांचा संघीय होगा। 16 जुलाई, 1948 को सत्‍ता हस्‍तान्‍तरित की जायेगी। इसके पूर्व संघीय भारत का संविधान तैयार कर लिया जायेगा।

2. संविधान लिखने के लिए 389 सदस्‍यों की संविधान सभा का गठन किया जायेगा जिसमें 89 सदस्‍य देशी रियासतों के प्रमुखों द्वारा मनोनीत किये जायेंगे।

3. शेष 300 सदस्‍यों का चुनाव ब्रिटिश शासित प्रान्‍तों की विधायिका के सदस्‍यों द्वारा किया जायेगा। इन 300 में से मुसलमानों के लिए आरक्षित 78 सीटों का चुनाव मुस्लिम समुदाय द्वारा ही किया जायेगा।यहां यह बात उल्‍लेखनीय है कि ब्रिटिश शासित प्रान्‍तों की विधानसभाओं के सदस्‍यों का चुनाव ‘भारत सरकार अधिनियम – 1935’ के अनुसार सीमित मताधिकार के आधार पर हुआ था। उक्‍त अधिनियम के अनुसार मात्र 15 प्रतिशत व्वयस्‍क नागरिकों को ही मत देने का अधिकार था (जो कुल आबादी के 0.5 प्रतिशतही थे)। शेष 85 प्रतिशत नागरिक मताधिकार से वंचित थे।

4. संविधान सभा सम्‍प्रभुता सम्‍पन्‍न नहीं होगी। वह कैबिनेट मिशन प्‍लान 1946 के अन्‍तर्गत संविधान लिखेगी जिसे लागू करने के लिए ब्रिटिश सरकार की स्‍वीकृति अनिवार्य होगी।

5.इस दौरान भारत का शासन प्रबन्‍ध भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत होता रहेगा जिसके लिए केन्‍द्र में एक सर्वदल समर्थित अन्‍तरिम सरकार गठित की जाएगी।

जुलाई, 1946 में संविधान सभा का चुनाव हुआ जिसमें कांग्रेस को 199 सीटें और 13 का समर्थन प्राप्‍त हुआ , मुस्लिम लीग को 72 सीटें मिलीं तथा 16 पर अन्‍य विजयी हुए। बाद में हालात ऐसे बने कि मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बॉयकाट कर दिया और पाकिस्‍तान की मांग को लेकर ‘सीधी कार्रवाई’ का ऐलान कर दिया । सितम्‍बर, 1946 में अन्‍तरिम सरकार का गठन हुआ जिसके प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू बने। 9 दिसम्‍बर को को संविधान सभा की पहली बैठक बुलाई गई, जिसमें राजेंद्र प्रसाद को अध्‍यक्ष चुना गया। 13 दिसम्‍बर को संविधान की प्रस्‍तावना पेश की गई और 22 जनवरी 1947 को उसे स्‍वीकार किया गया। लीग और रियासतों के मनोनीत प्रतिनिधियों के बॉयकाट के बाद (महज 15 प्रतिशत नागरिकों द्वारा निर्वाचित) संविधान सभा के कुल 55 प्रतिशत सदस्‍यों ने उसे स्‍वीकार किया। विभाजन के बाद इसी प्रस्‍तावना को भारतीय संविधान की दार्शनिक आधारशिला के रूप में स्‍वीकार किया गया। उल्‍लेखनीय है कि 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा ने प्रस्‍तावना को ब्रिटिश सरकार की स्‍वीकृति के लिए भेजने के लिए पारित किया था क्‍योंकि उस समय वह ब्रिटिश संसद के मातहत ही काम कर रही थी। 15 अगस्‍त 1947 को भारत को अधिराज्‍य घोषित कर दिया गया। डोमेनियन इसलिए कि संविधान तैयार होने तक, इनका शासन-प्रबन्‍ध ब्रिटिश संसद द्वारा पारित ‘भारत सरकार अधिनियम 1935’ से ही संचालित होना था।1946 में गठित उसी संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान के आधार पर 26 जनवरी, 1950 को भारत को जनतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया गया और इसके भी तीन वर्षों पश्‍चात 1952 में देश के पहले आम चुनाव हुए।

तो यह थी संविधान सभा और संविधान निर्माण की प्रक्रिया, यह सच्चाई दिन के उजाले की तरह साफ है कि संविधान सभा को संविधान बनाने के लिए, भारतीय जनता ने नहीं बल्कि ब्रिटिश संसद ने अधिकृत किया था। उक्त संविधान सभा का चुनाव सार्विक मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष चुनाव के द्वारा नहीं, बल्कि15 फीसदी उच्‍चवर्गीय नागरिकों द्वारा परोक्ष चुनाव की विधि से हुआ था। यह बात भी केवल ब्रिटिश शासित प्रान्तों के दो तिहाई भूभाग के लिए लागू होती है। एक तिहाई भूभाग वाले देशी रियासतों के इलाकों से प्रतिनिधियों को मनोनीत किया गया था-राजाओं-नवाबों के द्वारा।भारत के लोगों द्वारा भारतीय संविधान की पुष्टि कभी नहीं कराई गई, बल्कि संविधान के भीतर ही धारा 394 डालकर इसे पूरे देश की जनता पर थोप दिया गया। यहां तक कि ”केशवानंद भारतीय बनाम केरल राज्य” (19731) के मामले में उच्चतम न्यायालय के 13 जजों की संविधान पीठ के 12 सदस्यों ने एकमत से यह कहा है कि भारतीय संविधान के स्रोत भारत के लोग नहीं हैं बल्कि संविधान लिखने के अधिकार संविधान सभा को ब्रिटिश संसद ने दिया था। जस्टिस मैथ्यू ने स्पष्ट कहा है, ” यह सर्वविदित है कि संविधानकी प्रस्तावना में किया गया वायदा ऐतिहासिक सत्य नहीं है। अधिक से अधिक सिर्फ यह कहा जा सकता है कि संविधान लिखने वाले संविधान सभा के सदस्यों को मात्र 28.5 प्रतिशत लोगों ने अपने परोक्ष मतदान से चुना था और कौन ऐसा है जो उन्हीं 28.5 प्रतिशत लोगों को भारत मान लेगा?” इस संविधान के निर्माण की प्रक्रिया सच्चे अर्थों में जनवादी तभी हो सकती थी जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत की जनता सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा का चुनाव करती, या वह जिस विधायिका का चुनाव करती वह खुद ही संविधान सभा का भी काम करती अथवा संविधान सभा का चुनाव करती। भारतीय संविधान पश्चिमी पूंजीवादी उद़देश्‍यों के संविधानों से थोक भाव से जुमले उधार लेने और धुंआधार लफ्फाजी करने के बावजूद इस सच्चाई को छुपा नहीं पाता कि यह संविधान भारतीय जनता को अत्यंत सीमित जनवादी अधिकार प्रदान करता है और उन्हें भी छीन लेने के प्रावधान इसी के भीतर मौजूद हैं। शासक वर्ग के लिए आपातकाल के असीमित अधिाकारइसी संविधान के भीतर मौजूद हैं और घोषित मूलभूत अधिकारों को सीमित करने के रास्ते भी इसी के भीतर हैं। नीति निर्देशक सिध्दांतों के रूप में समाजवादी रंग-रोगन लगाते हुए संविधान में ”कल्याणकारी राज्य” के पश्चिमी पूंजीवादी मॉडलों की थोड़ी बहुत नकल भी की गई है, पर इन नीति निर्देशक सिंध्दांतों को मानने की कोई भी बाध्यता या लागू करने का कोई समयबध्द लक्ष्य शासक वर्ग के सामने नहीं रखा गया है और अब, आधी सदी बाद इन नीति-निर्देशक सिंध्दांतों को पढ़कर केवल ठठाकर हंसा ही जा सकता है। संविधान का मूल ढांचा वही है जो ब्रिटिश औपनिवेशक सत्ता ने तैयार किया था। वही आई.पी.सी, सी.आर.पी.सी, सम्पत्ति व उत्तराधिकार के वही कानून, कोर्ट-कचहरी का वही ढांचा, वही वकील-पेशकार, वही नजराना-शुकराना। आम नागरिक की स्थिति कानून व्यवस्था के सामने पुराने रैयतों जैसी ही है। और कानून-व्यवस्था से भी छन-रिसकर कुछ जनवादी और नागरिक अधिकार बचजाते हैं तो वे नौकरशाही और थाना-पुलिस की जेब में अटक जाते हैं।

ऐसे में भगतसिंह के नाम पर संविधान द्वारा प्रदत्‍त अधिकारों का हवाला देते हुए क्रांति की बात करना भगतसिंह कीवैचारिक हत्‍या की साजिश ही कही जा सकती है।भगतसिंह आम जनता के राज्‍य की बात करते थे और जिस संविधान का निर्माण ही मुट़ठीभर धनिक लोगों ने अपने ब्रिटिश आकाओं के रहमोकरम पर किया हो वह क्रांति की इजाजत देगा?वैसे भी राजकिशोर भगतसिंह की हत्‍या के मामले में हिस्‍ट्रीशीटर हैं। जी हां, आज से दो साल पहले जनसत्‍ता में ही उन्‍होंने इसीतरह का घृणित कार्य किया था जिसका जवाब भी सत्‍यम‍ ने दिया था। वह लेख मैंने तभी टाइप करके कम्‍प्‍यूटर में सुरक्षित रखा था। उसका शीर्षक फाइल करप्‍ट होने के कारण समझ नहीं आ रहा है लेकिन लेख जस का तस है।जनसत्में छपे राजकिशोर के हालिया लेख में दिए गए कुतर्कों को उजागर करने के लिए उस लेख के कुछ अंश भी हाजिर हैं:

‘जनसत्ता’ के 5 अक्टूबर के अंक में ‘भगतसिंह की ओट में’ राजकिशोर ने इतिहास के तथ्यों के साथ जमकर तोड़-मरोड़ की है। भगतसिंह के रास्ते में क्रान्तिकारी हिंसा का कोई स्थान नहीं था यह सिद्ध करने के लिए वह किन्‍हीं अनाम दस्तावेजों का जिक्र करते हैं। उनका दावा है कि ”हाल ही में प्रकाशित” भगतसिंह के दस्तावेजों से ”सूरज की रोशनी की तरह साफ है कि भगतसिंह का रास्ता हिंसा का रास्ता नहीं था।” उन्होंने ऐसे किसी दस्तावेज का नाम बताने की जरूरत नहीं समझी लेकिन अपने (कु) तर्कों के समर्थन में जिस एकमात्र लेख ”बम का दर्शन” का हवाला उन्होंने दिया है, आइये पहले उसी पर नजर डालते हैं।

‘बम का दर्शन’ दरअसल महात्मा गांधी के लेख ‘बम की पूजा’ के जवाब में क्रान्तिकारियों का पक्ष स्पष्ट करने के लिए लिखा गया था। भगवतीचरण वोहरा ने इसे लिखा था और भगतसिंह ने जेल में इसे अंतिम रूप दिया था। 26 जनवरी, 1930 को इसे देश भर में बांटा गया था। इसमें भगतसिंह साफ-साफ लिखते हैं, ”क्रान्तिकारियों का विश्वास है कि देश को क्रान्ति से ही स्वतंत्रता मिलेगी। वे जिस क्रान्ति के लिए प्रयत्नशील हैं और जिस क्रान्ति का रूप उनके सामने स्पष्ट है, उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों और उनके पिट्ठुओं से क्रान्तिकारियों का केवल सशस्त्र संघर्ष हो, बल्कि इस सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिए मुक्त हो जायें” (भगतसिंह और साथियों के दस्तावेज, सं. जगमोहन सिंह व चमनलाल, राजकमल प्रकाशन, पृ. 369)Aइसी लेख में आगे एक बार फिर एकदम स्पष्ट शब्दों में कहा गया है, ”क्रान्तिकारी तो उस दिन की प्रतीक्षा में हैं जब कांग्रेसी आन्दोलन से अहिंसा की यह सनक समाप्त हो जायेगी और वह क्रान्तिकारियों के कंधो से कंधाा मिलाकर पूर्ण स्वतंत्राता के सामूहिक लक्ष्य की ओर बढ़ेगी (उपरोक्त, पृ. 373)। इसी लेख में भगतसिंह ने एक अपील की है कि जिसे आज पढ़ते हुए लगेगा मानो वह राजकिशोर जैसे लोगों को ही संबोधिात हो, ”हम प्रत्येक देशभक्त से निवेदन करते हैं कि वे हमारे साथ गम्भीरतापूर्वक इस युध्द में शामिल हों। कोई भी व्यक्ति अहिंसा और ऐसे ही अजीबो-गरीब तरीकों से मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर राष्ट्र की स्वतंत्राता से खिलवाड़ न करे (उपरोक्त, पृ. 376)Aये चंद पंक्तियां ही नहीं पूरा लेख गांधी जी के अहिंसक रास्ते के बरक्स क्रान्तिकारियों के सशस्त्र प्रतिरोधों के रास्ते की वकालत करता है। लेकिन राजकिशोर लिखते हैं, ”’बम का दर्शन’…बराबर उपलब्ध रहा है। इसके बावजूद, दुर्भाग्यवश, भगतसिंह की छवि सशस्त्र प्रतिरोधों के दावेदार की बनी हुई है।” अब इसे क्या माना जाये? या तो इस सर्वसुलभ लेख का हवाला देने से पहले राजकिशोर ने इसे पलटकर भी नहीं देखा, या फिर उनकी ”नीयत” के बारे में राजेन्द्र यादव की टिप्पणी पर यकीन किया जाये?

अगर राजकिशोर का इरादा हिंसा-अहिंसा के प्रश्न पर, या भगतसिंह के रास्ते के सही या गलत होने पर बहस चलाने का होता, तो बात और थी। लेकिन वह बहस नहीं चलाते, आलोकधान्वा की कविता के बहाने वह क्रान्तिकारी हिंसा के रास्ते के विरुध्द फतवा देते हैं, और इसके लिए तथ्यों के साथ मनमाना तोड़-मरोड़ करते हैं।इसलिए आइये, इस बारे में भगतसिंह के विचारों की कुछ और बानगियाँ देखते हैं।

फांसी दिये जाने से ठीक तीन दिन पहले 20 मार्च 1931 को भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु ने पंजाब के गवर्नर को पत्रा लिखकर मांग की कि उन्हें फांसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये क्योंकि वे युध्दबंदी हैं। पत्र के शब्द थे :”…अंग्रेजों और भारतीय जनता के बीच युध्द छिड़ा हुआ है। …बहुत संभव है कि यह युध्द भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले। …यह तब तक खत्म नहीं होगा जब तक समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता।”जेल में लगातार अधययन और चिन्तन कर रहे भगतसिंह के दिमाग में भारतीय क्रान्ति के मार्ग की एक साफ तसवीर उभर रही थी जो कांग्रेस और गांधाी के रास्ते से एकदम अलग तो थी ही, भारतीय क्रान्तिकारियों की उस समय तक की राह से भी बिलकुल जुदा थी। फांसी से करीब एक महीना पहले लिखे ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ में भगतसिंह ने एक क्रान्तिकारी पार्टी बनाने के बारे में लिखा जिसकी ”मुख्य जिम्मेदारी यह होगी कि वे योजना बनायें, उसे लागू करें, प्रोपेगंडा करें, अलग-अलग यूनियनों में काम शुरू कर उनमें एकजुटता लायें, उनके एकजुट हमले की योजना बनायें, सेना व पुलिस को क्रान्ति-समर्थक बनायें और उनकी सहायता या अपनी शक्तियों से विद्रोह या आक्रमणकी शक्ल में क्रान्तिकारी टकराव की स्थिति बनायें, लोगों को विद्रोह के लिए प्रयत्नशील करें और समय पड़ने पर निर्भीकता से नेतृत्व दे सकें” (क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा, पूर्वोक्‍त, पृ. 403)। उपरोक्त कथन की व्याख्या किसी और अर्थ में करने की बात अगर कोई सोचे भी तो ‘मसविदे’ में ‘क्रान्तिकारी पार्टी’ उपशीर्षक के तहत दिया गया यह प्रस्ताव इसकी गुंजाइश खत्म कर देता है : ”ऐक्शन कमेटी : इसकारूप साबोताज, हथियार-संग्रह और विद्रोह का प्रशिक्षण देने के लिए एक गुप्त समिति। ग्रुप (क)नवयुवक : शत्रु की खबरें एकत्र करना, स्थानीय सैनिक सर्वेक्षण। ग्रुप (ख)विशेषज्ञ : शस्त्र-संग्रह, सैनिक प्रशिक्षण आदि” (पूर्वोक्त, पृ. 404)A लेखक: सत्‍यम

…………………………….समाप्‍त…………………..

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March 25, 2007
राजकिशोर द्वारा भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 10:00 pm

पिछले लेख से आगे

राजकिशोर ने भगतसिंह की ही आड़ में भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या की है। उन्‍होंने बेहद ढिठाई से उस व्‍यवस्‍था (पूंजीवादी) के संविधान को क्रान्ति का कानूनी दस्‍तावेज बताया है जिसे भगतसिंह और उनके साथी बलपूवर्क उखाड़ने की बात कहते थे। 6 जून, 1929 को ‘बमकांड पर सेशन कोर्ट में बयान’ में भगतसिंह और बटुकेश्‍वर दत्‍त ने स्‍पष्‍ट तौर पर लिखा था, ‘‘देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्‍यकता है। और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्‍य है कि साम्‍यवादी सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निर्माण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्‍य द्वारा मनुष्‍य द्वारा मनुष्‍य का तथा एक राष्‍ट्र द्वारा दूसरे राष्‍ट्र का शोषण, जो साम्राज्‍यशाही के नाम से विख्‍यात है समाप्‍त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्‍लेशों से छुटकारा मिलना असंभव है, और तब तक युद्धों को समाप्‍त कर विश्‍व शांति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज ढोंग के अतिरिक्‍त कुछ भी नहीं है। क्रांति से हमारा मतलब अंततोगत्‍वा एक ऐसी समाज व्‍यवस्‍था की स्‍थापना से है जो इस बात के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का आधिपत्‍य सर्वमान्‍य होगा। जिसके फलस्‍वरूप स्‍थापित होने वाला विश्‍व संघ पीडि़त मानवता को पूंजीवाद के बंधनों से और साम्राज्‍यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा।

सामयिक चेतावनी

यह है हमारा आदर्श। इसी आदर्श से प्रेरणा लेकर एक सही तथा पुरजोर चेतावनी दी है। लेकिन अगर हमारी इस चेतावनी पर ध्‍यान नहीं दिया गया और वर्तमान शासन व्‍यवस्‍था उठती हुई जनशक्ति के मार्ग में रोड़े अटकाने से बाज न आई तो क्रां‍ति के इस आदर्श की पूर्ति के लिए एक भयंकर युद्ध छिड़ना अनिवार्य है। सभी बाधाओं को रौंदकर उस युद्ध के फलस्‍वरूप सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतंत्र की स्‍थापना होगी। यह अधिनायकतंत्र क्रांति के आदर्शों की पूर्ति के लिए मार्ग प्रशस्‍त करेगा।…’’

राजकिशोर इस बात का जवाब दें कि क्‍या भारतीय संविधान वर्तमान पूंजीवादी व्‍यवस्‍था पर अधिकार कर शोषण मुक्‍त समाज की स्‍थापना का अधिकार देता है? उस मेहनतकश वर्ग के अधिनायकत्‍व की स्‍थापना की स्‍वतंत्रता प्रदान करता है, जिसकी बात भगतसिंह ने की थी? अगर नहीं, तो उनके इस लेख को भगतसिंह की वैचारिक हत्‍या कहना गलत नहीं होगा।

… जारी

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March 24, 2007
भगतसिंह के शहादत दिवस पर राजकिशोर का वैचारिक वमन
Filed under: राजनीति — Sandeep @ 2:49 pm

लगता है अखबारों के लिए भाड़े पर कलम घिसते-घिसते राजकिशोर जी बौद्धिक दीवालिएपन के शिकार हो गए है और उनकी कलम बांझपन की। भगतसिंह के शहादत दिवस पर जनसत्‍ता में छपे उनके लेख से तो यही साबित होता है। 23 मार्च को भगतसिंह का शहादत दिवस था। इस मौके पर जनसत्‍ता ने प्रख्‍यात ”बुद्धिजीवी” राजकिशोर के वैचारिक वमन को अपने संपादकीय पृष्‍ठ पर पर्याप्‍त जगह दी। इस लेख में राजकिशोर ने भगतसिंह के उद्धरण देते हुए भारत के नौजवानों को प्रेरित (भ्रमित) करने की पुरजोर कोशिश है, मुझे लगता है कि इस लेख को पढ़ कर कोई क्रान्तिकारी बने या न बने, भ्रान्तिकारी जरूर बन जाएगा और अपने संपर्क में आने वाले और लोगों को भी राजकिशोर के वैचारिक विभ्रम का शिकार बनाएगा। चलिए! अब इन भ्रामक तथ्‍यों और विचारों का बिंदुवार विश्‍लेषण भी कर लिया जाए।

लेख के चौथे पैरा में (शुरुआती तीन पैरा में उजागर हुए उनके दिमागी ढुलमुलपन की चर्चा बाद में करेंगे)लिखा है, ”…भगत सिंह के चिंतन में हमें भारत की सभी समस्‍याओं का हल मिल जाता है। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे गांधी के विचार और आचरण में…।” भई, अलग-अलग वैचारिक धरातल पर भारतीय समस्‍याओं का समाधान बताने वालों का रास्‍ता एक नहीं हो सकता और ऐसे में तय करना पड़ता है कि किसका रास्‍ता सही और व्‍यावहारिक है और एक बार तय कर लेने के बाद उसी रास्‍ते पर चलना चाहिए। लेकिन राजकिशोर जी भगतसिंह और गांधी दोनों ही के रास्‍तों को भारत के लिए हितकारी बता रहे हैं, जबकि दोनों में कहीं भी वैचारिक साम्‍य नहीं था। अगर भगतसिंह के पास भारतीय समस्‍याओं का समाधान था, तो गांधी के नाम का जाप क्‍यों? अगर उनके पास हल नहीं था, तो राजकिशोर को दृढ़ता से गांधी के रास्‍ते पर चलने का आह्वान करना चाहए था, भगतसिंह के शहादत दिवस पर लगभग आधा पन्‍ना काला करने की क्‍या जरूरत थी। जहां तक रास्‍ते का सवाल है, जिस भगतसिंह के नाम की माला खुद राजकिशोर जप रहे है, उन्‍हीं भगतसिंह ने भी कहा था कि, ”गांधी एक दयालु मानवतावादी व्‍यक्ति हैं। लेकिन ऐसी दयालुता से सामाजिक तब्‍दीली नहीं आती…।” (जगमोहन और चमनलाल द्वारा संपादित उसी किताब, ‘भगतसिंह और उनके साथियों के दस्‍तावेज’, की भूमिका जिसका मनमाना प्रयोग राजकिशोर ने अपने लेख में किया है) लगता है, या तो राजकिशोर ने खुद कभी इस पुस्‍तक और भगतसिंह को पूरी तरह पढ़ा और समझा नहीं है या फिर जानबूझकर लोगों को भ्रमित करने की कोशिश कर रहे हैं।

उनकी मूखर्तापूर्ण दलीलें यहीं खत्‍म नहीं होती। आगे वो उपरोक्‍त पुस्‍तक से भगतसिंह का हवाला देते हुए क्रान्ति की स्पिरिट ताजा करने की बात करते हुए कहते हैं, ” हमारे पास तो क्रांति का एक कानूनी दस्‍तावेज भी है। यहां में यह याद दिलाना चाहता हूं कि स्‍वतंत्र भारत का संविधान बनाते समय हमारे पूर्वजों ने गांधी की बातों को लगभग नहीं माना, लेकिन उन्‍होंने भगतसिंह का पूरा सम्‍मान किया।यह सम्‍मान जान-बूझ कर या समझ-बूझ कर किया गया था, यह बात मानने लायक नहीं लगती। यह सम्‍मान अनजाने में ही हुआ और इसीलिए हुआ कि उस समय दुनिया भर में समाजवाद को ही सभी बंद तालों की एकमात्र कुंजी के रूप में देखा जा रहा था। इसमें कोई संदेह नहीं कि संविधान बनाते समय भारत के एक बड़े बौद्धिक और राजनीतिक वर्ग ने चरम प्रकार का आत्‍म-मंथन किया था। वे कोशिश कर रहे थे कि दुनिया की विभिन्‍न व्‍यवस्‍थाओं में जो कुछ श्रेष्‍ठ है, उसे अपने सर्वाधिक मूल्‍यवान राष्‍ट्रीय दस्‍तावेज में समेट लिया जाए।…संविधान सभा में जैसी गहरी और ईमानदार बहसें हुईं, उनकी परछाई भी अब देखने को नहीं मिलती।…”वाह भाई राजकिशोर! ‘निठल्‍ला चिंतन’ नाम का एक हिंदी चिट्ठा (ब्‍लॉग) इंटरनेट पर देखा था, लेकिन आपने वाकई में इस नाम को सार्थक कर दिया। इस नाम की एक वेबसाइट अपने नाम से रजिस्‍टर करा लीजिए, ज्‍यादा उचित होगा। खैर उनके इस मुक्‍त चिंतन पर टिप्‍पणी करने से पहले पंजाब के क्रांतिकारी कवि पाश की कविता ‘संविधान’ का उल्‍लेख करना मौजूं होगा:

यह पुस्‍तक मर चुकी है

इसे न पढ़ें

इसके शब्‍दों में मौत की ठण्‍डक है

और एक-एक पृष्‍ठ

जिन्‍दगी के आखिरी पल जैसा भयानक

यह पुस्‍तक जब बनी थी

तो मैं एक पशु था

सोया हुआ पशु…

और जब मैं जगा

तो मेरे इंसान बनने तक

यह पुस्‍तक मर चुकी थी

अब यदि इस पुस्‍तक को पढ़ोगे

तो पशु बन जाओगे

सोये हुए पशु।

एक नाराजी

कल जब विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ की आज रविवासरीय जनसत्ता में हमारी प्रजाति के बारे में कुछ छप रहा है तो बड़ी खुशी हुई और तब से प्रतीक्षा करने लगे आज के ‘रविवासरीय जनसत्ता’ की . सुबह सुबह जब पेपर वाला आया तो उसे ‘जनसत्ता’ देने के लिये कहा . उसने कहा कि उसके पास कुछ ‘जनसत्ता’ थे लेकिन वो बांट दिये . उससे जब पूछा कि क्या वो एक प्रति ला के दे सकता है तो उसने कहा ….’जनसत्ता’ लोग कम ही पढते हैं इसलिये वो नहीं दे सकता . मैने सोचा कि चलो इंटरनैट पर पढ लेंगे लेकिन काफी ‘गूगलिंग’ करने के बाद भी ढूंढ नही पाया ‘जनसत्ता’ की साइट को .एक साईट मिली भी पर वो शायद ‘जनसत्ता’ की नहीं थी क्योकि उसमें काफी पुराने समाचार थे . यदि आपको पता हो तो बताना.

यहाँ यह बता देने में मुझे कुछ भी शर्म नहीं है कि मैं भले ही हिन्दी भाषा में अपना चिट्ठा लिखता हूँ , भले ही हिन्दी मेरी मातृभाषा है , भले ही मेरे घर में सिर्फ हिन्दी ही बोली जाती है लेकिन मेरे घर में हर दिन जो दो समाचार पत्र आते हैं वो अंग्रेजी भाषा के हैं .रविवार को तीन समाचार पत्र आते हैं लेकिन वो भी अंग्रेजी भाषा के ही हैं. ऎसी बात नहीं है कि मैने कभी हिन्दी समाचार पत्र पढ़ा ही न हो . बचपन में पहले घर में ‘नवभारत टाइम्स’ आता था . जिसमें सबसे पीछे पृष्ठ पर छ्पे ‘शरद जोशी’ जी के व्यंग्य का तो मैं मुरीद था. फिर ‘जनसत्ता’ आने लगा . उस समय प्रभाष जोशी उसके संपादक हुआ करते थे . उस समय संपादकीय पृष्ठ मुझे बहुत पसंद था . प्रो. पुष्पेश पंत के लेख तो मैने काट के संभाल के भी रखे थे. बाद में प्रभाष जोशी का ‘कागद कारे’ बहुत अच्छा लगता था .आलोक तोमर की कलम भी लाजबाब थी . जहां तक हिन्दी पत्रिकाओं का सवाल है तो ‘धर्मयुग” तो आती ही थी घर में …उसमें ‘कार्टून कोना डब्बू जी’ का इंतजार रहता था. जब अज्ञेय जी ‘दिनमान’ के संपादक थे तो ‘दिनमान’ भी पढ़ता था. फिर ‘कादंबिनी’ भी पढ़ी जिसमें ‘काल चिंतन’ और ‘समस्या पूर्ति ‘ मेरे प्रिय कॉलम थे . जब मैं हॉस्टल में था तो एक ‘वॉल मैगजीन’ निकाला करता था जिसमें ‘काल चिंतन’ की तरह मेरा एक कॉलम होता था ‘काक चिंतन’ .

खैर मैं भी कहां भटक गया . तो जब समाचार पत्र वाले ने मना कर दिया की वह ‘जनसत्ता’ नहीं दे पायेगा तो मैने सोचा चलो कोई बात नहीं बाहर से खुद ले आते हैं . तैयार होकर बाहर निकला और कम से कम दो किलोमीटर चला और 7 दुकानों में पूछा पर कहीं भी ‘जनसत्ता’ नहीं मिला . अब ये तो नहीं मालूम कि ऎसा इसलिये था कि लोग हमारी प्रजाति के बारे में पढ़ने के लिये बहुत बेताब थे और सारे पेपर सुबह सुबह खरीद लिये गये या फिर कोई और वजह थी पर कारण जो भी रहा हो नतीजा यही रहा कि ‘जनसत्ता’ नहीं मिला …. खैर आप लोग स्कैन कर भेजें ताकि हम भी जान पायें अपने बारे में…..वैसे भी लोकतंत्र में ‘जन’ को ‘सत्ता’ मिलना कठिन ही होता है..

Thursday, March 6, 2008

वामपंथी कलयुग की एक कहानी

वामपंथी कलयुग की एक कहानी

आलोक तोमर

कॉमरेडों को देश का विकास भी चाहिए, पूंजीवाद के विरोध के बाजूद बंगाल में देसी और विदेशी सेठों का पूंजी निवेश भी चाहिए और इसके लिए वे नंदीग्राम और सिंगुर में किसानों को पीटने और उनके जूनियर कॉमरेड इन गरीबों की औरतों के साथ मौज उड़ाने में मार्क्‍साद का कोई पतन नहीं देखते। बार-बार मनमोहन सिंह को धमकी दी जती है कि अमेरिका के साथ करार की बात भी की, तो सरकार खतरे में पड़ेगी। एक बार, सिर्फ एक बार मनमोहन सिंह ने जब दे दिया था कि सरकार कल गिराते हो, तो आज गिरा दो, तो कॉमरेडों की बोलती काफी दिन के लिए बंद हो गई थी।

बंगाल में लगातार, केरल में बारी-बारी से और आज की तारीख में देश के छोटे-बड़े कुल पांच राज्यों में वाम मोर्चा की सरकारें चल रही हैं और त्रिपुरा का फैसला आने के पहले की यह बात है। लेकिन उसकी असली दादागीरी तो संसद में बैठे उसके चालीस लोक सभा सदस्यों से चलती है और उन्हें पता है कि आज के चुना गणित में चालीस का यह आंकड़ा यूपीए के लिए बहुत जरूरी है। लेकिन वामंपथी अंर्तरिोध इतने ज्यादा खुल कर सामने आ रहे हैं कि साल बार-बार पूछा जने लगा है कि इस लाल कलयुग का अंत कब होगा? खास तौर पर बंगाल में तो हर बार माहौल मार्क्‍साद विरोधी दिखाई पड़ता है मगर फिर भी सरकार वाम मोर्चा की बन जती है।

लेकिन वाम मोर्चा की दरारें अब सबके सामने हैं। बाकी दल मार्क्‍सादी कम्युनिस्ट पार्टी पर तानाशाही और दादागीरी का आरोप लगा रहे हैं और सीताराम येचुरी और प्रकाश करात वाम आंदोलन के बड़े भाई बन जने की अपनी म्रुा से खूब मौज ले रहे हैं। दरअसल जिस पार्टी का जन्म ही भारतीय लोकतांत्रिक परंपरा को निभाने की बजय तत्कालीन सोयित संघ के दबावों की जह से हुआ हो और आज ही पार्टी अमेरिका की बजय रूस से परमाणु संधि करने के लिए तत्पर ही नहीं, आकुल भी दिखाई पड़ रही हो, तो जहिर है कि उसकी प्राथमिकताएं मूलत: और अंतत: भारतीय नहीं हैं।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भले ही आजदी के आंदोलन में कोई बहुत बड़ी भूमिका नहीं निभाई हो, लेकिन दूसरे विश्व ियुद्घ के बाद यह भारत में एक ताकत बन चुकी थी। इसने तेलंगाना, त्रिपुरा और केरल में उसी तरह हथियारबंद लड़ाई छेड़ी थी, जसी बाद में नक्सलबाड़ी से शुरू हुई और आज माओवादियों के हाथ में पहुंच गई है। बाद में कम्युनिस्ट पार्टी को भी समङा में आ गया कि इतने बड़े देश में हिंसा का संस्कार पनप नहीं सकता और संसदीय मर्यादा में रह कर ही काम करना होगा इसीलिए १९५0 में पार्टी के महासचि बी टी रणदि्वे को पद से हटा दिया गया था क्योंकि वे क्रांति की बातें करते थे।

जहर लाल नेहरू के दौर में भारत में दूसरा कोई महानायक नहीं था। नेहरू सोयित संघ को अपना अंतरंग और सभाकि मित्र बनाने पर तुले हुए थे और बदले में सोयित सरकार ने भारतीय ामपंथियों से कहा था कि े नेहरू की सरकार के प्रति उदार रहें और कांग्रेस का यथासंभ सहयोग करें। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बहुत बड़े तबके का मानना था कि नेहरू की प्रगतिशील छ िके बाजूद भारत एक सामंती समाज ही है और यहां खुलेआम र्ग संघर्ष किए बगैर समानता का रास्ता नहीं निकलेगा।

उसी दौरान १९५९ में कें्र सरकार ने देश की पहली ामपंथी सरकार यानी केरल में ई एम एस नमोदरीपाद का तख्ता पलट दिया और हां कें्रीय शासन स्थापित कर दिया। संयोग से उस समय यह देश में अकेली गैर कांग्रेसी सरकार थी। उसी समय चीन और सोयित संघ की कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच संबंध बिगड़ गए और नतीजे में चीन और भारत के रिश्ते भी तना से भर गए। १९६२ में तो भारत-चीन युद्घ हुआ ही था और उसमें बहुत सारे कॉमरेड चीन के साथ थे। उनका कहना था कि यह एक समाजदी यानी चीन और पूंजीादी यानी भारत ताकत के बीच संघर्ष है। यह सीधा देश्रोह था, लेकिन वामपंथियों की राजनीति में ्रोह और निष्ठा के शायद अलग पैमाने होते हैं। श्रीपाद अमृतढांगे, ए के गोपालन और ई एम एस नमोदरीपाद ने भारत का साथ दिया। उधर दूसरी ओर बी टी रणदि्वे, पी सुंदरैया, पी सी जोशी, बास पुन्नइैया, ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत उस समय खुलेआम चीन का समर्थन कर रहे थे। एकमात्र अजय घोष थे, जो तटस्थ भूमिका में थे। कुल मिला कर बंगाल के ज्यादातर कम्युनिस्ट नेता चीन का समर्थन करने में जुटे हुए थे और इनमें से कई को पकड़ कर जेल भी भेज दिया गया।

१९६२ में अजय घोष की मृत्यु हो गई और उनकी जगह एक नया पद बना कर श्रीपाद अमृतढांगे को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। ई एम एस नमोदरीपाद महासचि बने, लेकिन १ अप्रैल, १९६४ को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में कार्यकारिणी के बत्तीस सदस्य ढांगे और उनके समर्थकों पर कम्युनिस्ट रिोधी होने का आरोप लगा कर अधिेशन से बाहर निकल गए और उन्होंने आंध्र प्रदेश के तेनाली कस्बे में ७ से ११ जुलाई तक एक सम्मेलन करके एक नया संगठन बनाने पर चिार किया। इसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के १४६ प्रतिनिधि थे और उनका दा था कि े एक लाख से अधिक कॉमरेडों का प्रतिनिधित् कर रहे हैं। इसी सम्मेलन में तय हुआ कि कोलकाता में पार्टी की सातीं कांग्रेस का आयोजन किया जएगा। दिलचस्प बात यह है कि मार्क्‍सादी कम्युनिस्ट पार्टी का बीज तेनाली के जिस सम्मेलन में पड़ा था, हां मंच पर सिर्फ एक ही आदमकद तस्ीर थी और ह चीन के नेता माओत्ससे तुंग की थी।

दरअसल सिलीगुड़ी, कोलकाता और दिल्ली में हुई पार्टी की बैठकों में एक साल यह भी बार-बार उठता रहा कि मंच पर माओ की तस्ीर क्यों नहीं है? मार्क्‍सादी कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म जिस सभा में हुआ, हां भी मार्क्‍स की नहीं, माओ की तस्ीर मंच पर थी। आज इन्हीं मार्क्‍सादियों के नेतृत् में चलने ाली बंगाल सरकार माओादियों को अपराधी बता कर मौत के घाट उतारने पर तुली हुई है और अमेरिका की बजय चीन से नहीं, रूस से परमाणु संधि की कालत कर रही है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की दशा वैसी ही हुई, जसी संयुक्त परिार में एक सहनशील बड़े भाई की होती है। आज राज्य सभा की एक सीट के लिए ह मार्क्‍सादी कम्युनिस्ट पार्टी के सामने हाथ फैला रही है और उसे जब तक नहीं मिलता। इतिहास के फुटपाथ पर अपनी मूल पार्टी को भिखारी की तरह दुत्कारने वाले और छद्म समाजद के रथ पर सार ामपंथियों को तो शायद यह भी याद नहीं होगा कि साक्षरता के मामले में वे देश के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी !

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी !
भाजपा में वाजपेयी के बाद अकेले जननेता
आलोक तोमर

नरेंद्र मोदी, जब कभी भाजपा में सत्ता में आई तो देश के प्रधानमंत्री बनेंगे. मैं यह नहीं कह रहा कि वे बन सकते हैं बल्कि कह रहा हूं कि बनेंगे ही. इस निष्कर्ष से बहुतों को ऐतराज हो सकता है और उनमें काफी हद तक मैं भी शामिल हूं लेकिन आप सच को कब तक किनारे कर सकते हैं? आपके कहने से लालू यादव जोकर से दार्शनिक नहीं हो जाएंगे और अब्दुल करीम तेलगी धर्मराज नहीं बन जाएगा.
आप चाहें तो इस बात से संतोष कर सकते हैं कि राजनैतिक परिभाषा में भरी जवानी में मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगे. बासठ साल के वे हो चुके हैं, अगले चुनाव में भाजपा या उसके मोर्चे की सरकार बनेगी ही, इसकी कोई गारंटी नहीं और उसके बाद का चुनाव अगर अपने तय समय पर हुआ तो मोदी बहत्तर साल के हो जाएंगे. उस समय तक राजनीति क्या करवट लेती है और अटल बिहारी वाजपेयी की अधूरी उपस्थिति और भगवान न करें, अनुपस्थिति पार्टी की पहचान पर क्या असर डालती है, यह जरूर एक महत्वपूर्ण सवाल है.
आज की तारीख में भाजपा में अगर कोई जन नेता है तो अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा नरेंद्र मोदी का ही नाम लिया जा सकता है. वाजपेयी के अलावा मोदी की ही सभाओं में लाखों की भीड़ होती है और वे वाजपेयी की तरह सहज वक्ता नहीं हैं लेकिन भीड़ को बांध कर रखना उन्हें अच्छी तरह आता है. मुहावरे वे गढ़ लेते हैं, जहां जरूरत होती है, वहां वही भाषा बोलते हैं और अच्छे-अच्छे खलनायकों को हिट करने वाली और दर्शकों को मुग्ध करने वाली जो बात होती है, वह मोदी में भी है कि वे अपने किसी कर्म, अकर्म या कुकर्म पर शर्मिंदा नजर नहीं आते.

संघियों के लिए भले आदमी
लाल कृष्ण आडवाणी का भारत उदय तो नहीं चला लेकिन नरेंद्र मोदी ने अपने गुजरात का अच्छा-खासा उदय करवा डाला. टोटकों में उन्हें यकीन नहीं है. आपको याद होगा कि महेंद्र सिंह धोनी की टीम जब विश्व विजेता बन कर लौटी थी तो हर खिलाड़ी के राज्य ने उन पर उपहारों की बरसात कर दी थी. किसी को करोड़ मिले थे तो किसी को विदेशी कार. सबसे बाद में देर रात गांधीनगर से एक छोटी सी खबर आई थी कि इरफान पठान और उनके भाई यूसुफ पठान को मिला कर सरकार ने दो लाख रुपए का इनाम दिया था.
सच तो यह है कि भारत में बहुत कम राजनेता ऐसे हैं, जो केंद्रीय राजनीति की मुख्यधारा में नहीं हैं लेकिन केंद्रीय राजनीति उन्हीं के आसपास घूमती रहती है. नरेंद्र मोदी गोधरा के खलनायक हैं मगर संघ परिवार, भाजपा और कुल मिला कर हिंदुओं के बीच भले आदमी माने जाते हैं. पिछली बार जब वे दोबारा मुख्यमंत्री बने थे तो विधानसभा की 182 सीटों में से 126 का प्रचंड बहुमत उन्हें मिला था. यह तब हुआ था, जब गोधरा की यादें ताजा थीं और तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से ले कर खुद अटल बिहारी वाजपेयी तक ने गुजरात की निन्दा की थी.
नरेंद्र मोदी ने काफी कुछ स्वर्गीय प्रमोद महाजन की तरह राजनीति में अपनी जगह खुद बनाई है. घर द्वारा छोड़ा, पत्नी की शक्ल बहुत दिनों बाद शायद अखबारों और टीवी पर ही देखी होगी और संघ के स्वयंसेवक बन गए. जल्दी ही प्रचारक बनें और जब उनकी लोकप्रियता बढ़ती दिखी तो उन्हें संघ परिवार के निर्देश पर ही राजनीति में ले आया गया. पहले गुजरात की राजनीति और फिर दिल्ली में महासचिव बन कर उन्होंने आधार और रणनीति दोनों अर्जित किए.

कुतर्की विजयी भवः
आज कल सुना है कि वे शौकीन हो गए हैं लेकिन काफी समय तक दिल्ली में भाजपा के मुख्यालय 11, अशोक रोड के पिछवाड़े एक छोटे से कमरे में वे दूसरे महासचिव गोविंदाचार्य के साथ रहते थे. उस कमरे में एक ही फोन था और बिस्तर जमीन पर लगते थे. श्री मोदी जब पार्टी कार्यालय के अपने कमरे में आते थे तो उसका दरवाजा खुला रहता था. गोविंदाचार्य और मोदी के बीच एक आधारभूत फर्क यह था कि गोविंदाचार्य जटिल हिंदूवाद को तर्कों के सहारे प्रतिपादित करते थे तो नरेंद्र मोदी कुतर्कों के सहारे. यह तो आप जानते हैं कि राजनीति में आम तौर पर कुतर्क जीतते हैं.
नरेंद्र मोदी पर आरोप है कि गोधरा का दंगा उन्होंने प्रायोजित करवाया. उन्होंने इसका जाहिर तौर पर खंडन किया है लेकिन इस दंगे के नैसर्गिक और स्वाभाविक होने के पक्ष में तमाम दलीलें दी हैं. इस पूरे हादसे की जांच अब भी चल रही है और मोबाइल फोन रिकॉर्डों के जरिए यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि यह दंगा असल में मुख्यमंत्री निवास से संचालित हो रहा था. उस समय तक नरेंद्र मोदी अपना मोबाइल फोन नहीं रखते थे.
आम स्वयंसेवकों की तरह नरेंद्र मोदी, जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया वाले मामले में यकीन नहीं करते. वे अब रेशमी कपड़े पहनते हैं और महंगे मोबाइल फोन और लैपटॉप अपने पास रखते हैं. वे देश के अकेले ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्हें अमेरिका ने वीजा देने से इनकार कर दिया था क्योंकि एफबीआई की रिपोर्ट थी कि मोदी के वहां आने से वहां रह रहे लाखों मुसलमानों में से कुछ हिंसा के लिए तत्पर हो सकते हैं. मोदी के मुद्दे भी कमाल के होते हैं. पिछला पूरा विधानसभा चुनाव उन्होंने मुशर्रफ को गालियां दे कर लड़ा और धड़ल्ले से जीता.
भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के बाद जननायक किस्म के नेताओं की कोई कतार खड़ी नहीं की गई. उमा भारती और सुषमा स्वराज में यह संभावना थी लेकिन संघ परिवार महिलाओं को नेतृत्व में आगे रखने के लिए नहीं जाना जाता. कम लोग जानते हैं कि भाजपा के जिन नेताओं के कांग्रेस और यहां तक कि कट्टर दुश्मन वामपंथियों के साथ भी काफी अच्छे और आत्मीय रिश्ते वाले सूत्र हैं. अगर भाजपा जैसा दल अपना अखिल भारतीय नेतृत्व नरेंद्र मोदी में खोज रहा है तो यह उसका अपना मामला है लेकिन यह जरूर जाहिर हो जाता है कि भारतीय राजनीति में लोकप्रियता कोई अचल संपत्ति नहीं होती है. अटल बिहारी वाजपेयी एक अपवाद जरूर हैं.
इस बात से डरने की कोई जरूरत नहीं है कि नरेंद्र मोदी आएंगे तो देश से मुसलमानों का सफाया कर देंगे, उनका पर्सनल लॉ खत्म कर देंगे और धारा 370 खत्म करके जरूरी हुआ तो कश्मीर में अनिश्चित कालीन आपातकाल लगा देंगे. इस देश का लोकतंत्र इतना बालिग हो चुका है कि वह अगर किसी को सिर पर बिठाता है तो गर्दन को झटका देने का विकल्प भी मौजूद रखता है. इतने बड़े देश में सिर्फ हिंदू एजेंडे से शासन नहीं किया जा सकता. भारत नेपाल नहीं है और अब तो नेपाल भी नेपाल नहीं है.

यह क्रिकेट का खेल नहीं धंधा

Friday, February 22, 2008
यह क्रिकेट का खेल नहीं धंधा
प्रभाष जोशी
यह क्रिकेट का खेल नहीं। क्रिकेट का धंधा है। इसमें खेल को उत्पाद बना दिया गया है। खिलाड़ी इस उत्पाद के कारखाने हैं। इन कारखानों की मुंबई में बोली लगाई गई। ट्वेंटी-20 की इंडियन प्रीमियर लीग के लिए ७८ अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों की बोली लगी और १६८़३२ करोड़ रुपयों में नीलाम हुए। बोली की असली म्रुद्रा तो डॉलर हैं, इसलिए डॉलर में ही बोली लगी। बोली लगाने लिए भी विलायत से आदमी बुलाया गया था, जिसका काम ही बोली लगाना और चीजों को बिकाना है। इस नीलामी को देखकर क्रिकेट बोर्ड के पुर्व अध्यक्ष इंद्र्रजीत सिंह बिंद्रा ने कहा कि उनने अपने जीवन में इससे ज्यादा उतेजक कुछ नहीं देखा।

भगान उनका भला करे। अपने यहां भगवन से बड़ा उनका नाम माना जता है। हमने क्रिकेट से बड़ी उसकी बोली को बना दिया है। दा किया ज रहा है कि इसकेबाद क्रिकेट वैसा नहीं रह जएगा, जसा कि ह डेढ़-दो सौ साल से चला और खेला जा रहा है। बाजर में बिकने के बाद पहले और अपने जसे बने रहने का हक किसी को नहीं रहता। खेल हो, आदमी हो या देश! बंगलुरू की टीम के मालिक जिय माल्या ने कहा, यह भारतीय क्रिकेट केलिए सबसे महान दिन है। आप समङाते रहे होंगे कि भारतीय क्रिकेट केलिए सबसे बड़ा दिन ह रहा होगा, जब कपिल की टीम ने विश्व कप जीता था।

अब अपनी समङा को सुधार लीजिए। खेला गया क्रिकेट कभी उतना महान नहीं होता, जितना खरीदा या बेचा गया क्रिकेट होता है। जिस खेले गए क्रिकेट का बाजर में कोई मोल नहीं होता, ह महान या बड़ा नहीं हो सकता। इसलिए देखिए कि ऑस्ट्रेलिया के जो कप्तान रिकी पोंटिंग इस समय दुनिया के नंबर एक बल्लेबाज हैं, महान बल्लेबाजों में से एक हैं, उन्हें कोलकाता ने महज १़६ करोड़ में खरीद लिया और बंगाल के युवा मनोज तिारी, जो भारत की तरफ से वन डे और टेस्ट मैच खेले तक नहीं हैं, उन्हें दिल्ली ने २़७ करोड़ में लिया है।

लेकिन क्रिकेट का मानदंड लगाना हो, तो सबसे मजेदार मामला ऑस्ट्रेलिया के महान तेज गोलंदाज ग्लेन मैक्ग्रा का है। पिछले दशक भर तेज गोलंदाजी में मैक्ग्रा का बोलबाला रहा है। अभी कुछ समय पहले तक ह वॉर्न और मुरली केबाद सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले गोलंदाज थे। मुरली ने वॉर्न को पीछे छोड़ा और कुंबले ने मैक्ग्रा को। मैक्ग्रा गए साल रिटायर हुए, तो क्रिकेट इतिहास के महानतम गेंदबाजों में गिने गए। उनकी मूल कीमत ८0 लाख थी। उन्हें बोली पर चढ़ाया गया, तो कोई भी लेने को तैयार नहीं। अपने राउंड में ह अनबिके रह गए। आखिरकार दिल्ली ने उन्हें१़४ करोड़ में खरीदा।

अब मज देखिए कि भारतीय तेज गेंदबाज १९ बरस के इशांत शर्मा को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में साल भी पूरा नहीं हुआ है। गए साल पाकिस्तान के खिलाफ बंगलुरू टेस्ट में उनने एक पारी में पांच किेट लिए और उन्हें ऑस्ट्रेलिया दौरे पर लिया गया। जहीर खान के चोट खाकर लौटने के कारण ह सिडनी टेस्ट में खिलाए गए। अच्छी गेंदबाजी की। अभी एडिलेड के वन डे में उनने १५0 किलोमीटर से भी तेज एक गेंद देंकी और भारत के क्रिकेट इतिहास के सबसे तेज गोलंदाज हो गए। बेशक ह बड़े तेज और सक्षम गोलंदाज हैं, लेकिन कहां ग्लेन मैक्ग्रा और कहां इशांत शर्मा। मैक्ग्रा का कोई खरीदार नहीं था, पर इशांत शर्मा को कोलकाता ने ३़८ करोड़ में लिया।
ऑस्ट्रेलिया के माइकल हसी को मिस्टर क्रिकेट कहा जता है। टेस्ट में उनकी औसत ८0 और न डे में ५0 से ऊपर है। उनका कोई खरीदार नहीं था। लेकिन उनके छोटे भाई डेडि हसी ढाई करोड़ से ज्यादा में गए। ट्वेंटी-20 का विश्व कप जीतने वाली भारतीय टीम के लगभग सब सदस्य औने-पौने दामों में गए। कप्तान धोनी तो सभी से ऊंची कीमत छह करोड़ में गए। लेकिन हसी, रामनरेश सरन, शिनारायण चंद्र्रपॉल, जस्टिन लेंगर, साइमन कटिच, ततिंदा तायबू आदि को कोई पूछने वाला नहीं था। लेकिन इतने विवादो में रहे एंड्रयू सायमंड्स को हैदराबाद ने ५़४ करोड़ में खरीद लिया। धोनी के बाद सबसे बड़ी कीमत पर।

इससे इतना तो आपके सामने साफ हो गया होगा कि इस नीलामी में खेल का कोई महत् नहीं था। क्रिकेटीय क्षमता की बोली नहीं लगाई गई। सबसे बड़ा भा ग्लैमर का था। उसके बाद ािद का। तभी तो एंड्रयू सायमंड्स को कोई साढ़े पांच करोड़ मिले। सयामंड्स अच्छे ऑल राउंडर हैं। लेकिन ट्वेंटी-20 के विश्व कुप में उनसे कोई खास बना नहीं था। वन डे के भी ह कोई बहुत नामी खिलाड़ी नहीं हैं। लेकिन कुछ भारतीय खिलाड़ियों से उनकी खटकती है। पिछले साल भारत आए थे, तो दर्शकों ने उन्हें मंकी कहके चिढ़ाया था और ह बहुत नाराज हुए थे। फिर ऑस्ट्रेलिया में उनसे हरभजन की गाली-गलौज हो गई। इन विवादो से उनका भा बढ़ गया और उन्हें ऊंचा दाम मिला। तीसरी चीज जो बिकी, ह खिलाड़ियों का देसी होना थी। और फिर ट्वेंटी-20 के श् िकप की विजेता टीम में जो भी अच्छे थे, उन्हें अच्छे दाम मिले। सिर्फ एक मैच खेलने वाले यूसुफ पठान को जयपुर ने १़९ करोड़ में ले लिया। जोगिंदर शर्मा को ट्वेंटी-20 के बाद पूछा नहीं गया था, पर उन्हें भी चेन्नई ने करीब एक करोड़ में लिया।
इसका मतलब है कि टीम के मालिकों की नजर टी और मैदान के दर्शकों पर थी। ऐसे ही खिलाड़ी अपनी टीम में चाहते थे, जो दर्शकों को खींच सके। आखिर इन खिलाड़ियों के लिए ही नहीं, इन टीमों की मिल्कियत पाने के लिए भी उनने करोड़ों रुपये बोर्ड को दिए हैं। अब टीम बन जएगी और मैच होंगे, तो उन्हें ज्यादा से ज्यादा कमाई की लग जएगी। कमाई नहीं होगी, तो इंडियन प्रीमियर लीग बैठ जएगी। ैसे भी इतना पैसा धर्मादा में कोई नहीं देता। लीग में यह जो अरबों रुपये आए हैं, यह पैसे वालों का क्रिकेट में नि्वेश है। वे इससे एक-एक रुपया सूल ही नहीं करेंगे, अच्छा-खासा मुनाफा भी कमाएंगे। अब कहने की जरूरत नहीं कि इसमें मुख्य तो लाभ कमाना है, क्रिकेट खेलना नहीं। ही खेलना है, जो कमाकर दे सके। चौके-छक्के उड़ने से खेल उतेजक और दर्शनीय हो जता है। लेकिन लगातार ही होता रहे, तो भी उबाऊ हो जता है।

यह जरूर हुआ है कि इससे कल जन्मे कुछ खिलाड़ी करोड़पति हो गए हैं और लगभग सभी प्रथम श्रेणी के खिलाड़ी लखपति हो जएंगे। खिलाड़ियों की कमाई अच्छी हो जए और क्रिकेट खेलना कमाऊ हो जए, तो ज्यादा से ज्यादा लड़के खेलने को आएंगे। खूब होड़ होगी, तो इससे मानना चाहिए कि खेल भी सुधरेगा। लेकिन दो बातें और समङा लेना चाहिए कि खूब पैसा मिले, तो हर कोई सचिन तेंदुलकर नहीं हो जता। अब तक एक भी उदाहरण नहीं है कि पैसे ने महान प्रतिभा पैदा की हो। दूसरी बात कि होड़ किसके लिए? अगर ह पैसे, सुख-सुविधा और ग्लैमर के लिए है, तो क्रिकेट नहीं सुधरेगा। अरबों रुपये आ जने से बेहतर होता, तो अब तक सारे चैंपियन अमेरिकी होते। धंधा और पैसा बुरी चीज नहीं है। लेकिन सिर्फ धन धन्य नहीं करता।(शब्दार्थ)

हम यहीं, तुम यहीं, शराब यहीं

Wednesday, February 27, 2008
हम यहीं, तुम यहीं, शराब यहीं
आलोक तोमर

तुम नहीं, गम नहीं, शराब नहीं, जसे खूबसूरत शेर की पैरोडी शीर्षक में करने के लिए माफ करें, लेकिन जिस दिन दिल्ली के अखबारों में खबर छपी थी कि स्कूल और कॉलेज जने वाले पांच दोस्त एक दस लाख रुपए की कार में एक पांच सितारा होटल से शराब पी कर लौट रहे थे और इंडिया गेट के पास भोर होने से कुछ ही पहले उनकी कार पहले एक पेड़ से टकराई और फिर उलट गई। नतीज था बीस साल की एक प्रतिभाशाली और सुंदर बेटी की लाश, उसके दोस्त की चिता और जीन के बड़े हिस्से के लिए अपाहिज हो गए बाकी नौजवान।

अगले ही दिन अखबार में जोर शोर से छपा था कि दिल्ली के पड़ोस में हॉंगकॉंग बनते ज रहे गुड़गां में अब बार २४ घंटे खुले रहेंगे। इसके बाद इस घोषणा के सगत में बड़े-बड़े अभिजत और सितारा किस्म के बुद्घिजीयिवों के बयान आए और कहा गया कि इससे जीन शैली सुधरेगी। दिल्ली में शराब एक तरह से जीनचर्या का स्वीकृत हिस्सा बन गई है और हर वीकेंड पर शराब की पार्टियां फॉर्म हाउसों से ले कर होटलों और घरों में होना एक सामाजिक रस्म बनती ज रही है।

जब से दिल्ली की यातायात पुलिस ने शराब पी कर कार चलाने वालों को चालान करने के साथ भारी जुर्माना भरने और सीधे जेल भेज देने की मुहिम शुरू की है, तब से अपना कारोबार बचाने के लिए बार मालिकों ने बाकायदा ड्राइर भर्ती कर लिए है या टैक्सी से्वाओं से अनुबंध कर लिया है, जो पी कर लड़खड़ाते हुए लोगों को सुरक्षित और निरापद उनके घर छोड़ कर आते हैं। दिल्ली और हरियाणा में अलग-अलग समय नशाबंदी के प्रयोग बड़े जोर-शोर से हुए हैं लेकिन होता यही रहा है कि गुड़गां और फरीदाबाद से पहले लोग दिल्ली में शराब खरीदने आते थे और बाद में जब दिल्ली में नशाबंदी लागू हुई तो यहां के लोग हरियाणा से जुगाड़ करके लौटने लगे। यह कहानी सिर्फ दिल्ली की नहीं है।

गुजरात में जहां महात्मा गांधी के प्रति आदर जताने के लिए सनातन नशाबंदी की गई है, उसकी सीमा पर भी महाराष्ट्र, राजस्थान और मध्य प्रदेश के इलाकों में शराब की शानदार हाटें लगती हैं और लोग लहराहते हुए गांधी की धरती में घुसते हैं। वैसे, गुजरात में नशाबंदी के बाजूद बाहर से आने ालों के लिए परमिट की प्रथा है और शराब की जो दुकानें हैं, वे देश के दूसरे हिस्सों की तुलना में लगभग पांच सितारा किस्म की हैं। दुकानों के बाहर एक दरोगा जी मेज-कुर्सी लगा कर बैठे रहते हैं और अपनी फीस ले कर परमिट काटते रहते हैं। बार में भी ड्रिंक्स का ऑर्डर लेने जो वेटर आता है, वह अपने साथ परमिट का फॉर्म ले कर आता है।

वैसे तो दिल्ली गालिब का शहर है, जिन्होंने बहुत पहले लिख दिया था कि मुफ़त की पीते थे मय और ये समङाते थे कि हम, रंग लाएगी हमारी फाका मस्ती एक दिन। गालिब के ये रंग उनकी जिंद्गी को पता नहीं कितना रंगीन कर पाए, लेकिन उनकी दिल्ली को आम तौर पर बदरंग करने की खबरें आती रहती हैं। कभी चार शराबी मिल कर एक पुलिसाले को पीट देते हैं, तो कभी नशे में लाल बत्ती लांघने की जल्दी में ट्रैफिक कॉंस्टेबल को उड़ा कर चले जते हैं। हाल मुंबई का भी अलग नहीं है। शराब मुंबई की सामाजिक अनिवार्यता बन चुकी है और अभी दो साल पहले तक यहां के बार शराब और बार बालाओं दोनों के लिए जने जते थे। बार बालाएं अब आधिकारिक रूप से नहीं हैं। लेकिन मुंबई शायद उन दुर्लभ शहरों में से एक है, जहां शराब की होम डिलीरी भी होती है।

ैसे शराब के शौकीनों की राजधानी भारत में अगर कहीं है तो गो है। काजू से बनी हुई हां की फैनी तो मशहूर है ही। इसके अला यह अकेला इलाका है, जहां मेडिकल स्टोर से ले कर दाल-चाल की दुकानों पर भी आधिकारिक रूप से शराब बिकती है। ह भी इतनी सस्ती कि लोग आते क्त हाई अड्डे के या रेल कर्मचारियों के जेब गर्म करके दो-दो दजर्न बोतलें ले आते हैं। अब तो स्कॉच भारत में ही बनने लगी है और भारत सरकार ने इसके आयात पर टैक्स भी बहुत कम कर दिया है। अभिजत पार्टियों में स्कॉच पानी की तरह बहती है और नतीजे में कभी हम जेसिका लाल की लाश देखते हैं, तो कभी रातों में बीच सड़क पर ठुकी हुई गाड़ियां। सरकारी राजस् के लिए शराब शायद इतनी भारी मजबूरी बन चुकी है कि सिर्फ नकली सतर्कता के अला अधिक-से-अधिक शराब खपाने पर सरकारें जोर देती हैं। दिलचस्प बात तो यह है कि शराब पीना सस्थ्य के लिए हानिकारक है, जसे पत्रि संदेशों का जो प्रचार होर्डिंग और बोर्ड के जरिए किया जता है, उसका भुगतान भी शराब की कमाई से होता है।

शुरुआत के दिनों में भारत सरकार शराब की बिक्री को प्रोत्साहित नहीं करती थी और कई राज्यों में तो पूरी नशाबंदी कर दी गई थी। मगर इसके बाद सड़कें बनाने और बाकी किास के कामों के लिए पैसा कम पड़ने लगा तो नशाबंदी का बुखार उतर गया और ज्यादा से ज्यादा शराब की बिक्री पर जोर दिया जने लगा। इसी नर्ष की परू संध्या पर मुंबई में लगभग दो अरब रुपए की और दिल्ली में ७६ करोड़ रुपए की शराब बिकी थी। सरकार भी खुश और शराबी भी खुश। अब तो देश का कानून बनाने ालों ने दुनिया के सबसे बड़े शराब कारोबारियों में से एक जिय माल्या भी हैं, जो जहाज भी उड़ाते हैं और शराब भी बेचते हैं। उन्होंने अब दिेशी स्कॉच के कई ब्रांड भी खरीद लिए हैं और उनकी एयरलाइन का नाम तो है ही, उनकी प्रसिद्घ किंगफिशर बीयर के नाम पर।

घरेलू उड़ानों में पहले शराब नहीं परोसी जती थी। जब प्राइेट एयरलाइन का जमाना आया, तो प्रतियोगिता के दौर में यात्रियों को बीयर दी जने लगी। उस दौर में हालत यह होती थी कि इंसान जहाज में चढ़ता तो आराम से था, लेकिन उतरता लड़खड़ाते हुए था और उतरते ही हाई अड्डे के बाथरूम के बाहर कतार लग जती थी। बाद में सरकार ने ही यह प्रयोग बंद करा दिया।

अगर शास्त्रार्थ जसी कोई चीज शराब के मामले में हो तो एक पुराने शराबी के नाते अपने पास बहुत सारे तर्क हैं। पहला यह कि शराब शाकाहारी है, ेदों और शास्त्रों में सोमरस के नाम से उसका उल्लेख है, देता भी इसका सेन करते हैं और यह कि दो-चार पैग लगा लेने से कोई मर नहीं जता। इसके अला कहने ाले यह भी कहेंगे कि हम अपने पैसे की पीते हैं और किसी से मांगते नहीं हैं और जो लोग हर चीज में परोपकार खोजते हैं, उनका कहना होगा कि अगर सबने बंद कर दी तो शराब व्यापार में लगे लोगों का क्या होगा और जिन किसानों के गन्ने, जौ, अंगूर और काजू से शराब बनती है और े और उनके परिार भूखे मर जएंगे। उनको भूख से बचाने के लिए हमारा पीना जरूरी है। तर्क और कुतर्क के बीच सिर्फ दो पैग का फासला होता है।

फिर बहुत सारे लोग गिनाने लगेंगे कि नासा से ले कर दुनिया की बहुत सारी प्रयोगशालाओं की रपट बताती हैं कि जो लोग एक निश्चित मात्रा में नियमित शराब पीते हैं, उन्हें दिल का दौरा नहीं पड़ता या कैंसर नहीं होता या े लंबे समय तक जीते हैं। इन तर्कशास्त्रियों का एक ही जब उन्हीं के पक्ष में दिया जना चाहिए कि शराब लगातार पीने का एक सबसे बड़ा लाभ यह है कि शराब पीने ाला कभी बूढ़ा नहीं होता। ह जनी में ही मर जता है। बहुत सारी दाइयां हैं, जिनमें अल्कोहल होता है और डॉक्टर साफ-साफ कहते हैं कि यह दाई लेने के बाद आप कम-से-कम कार मत चलाना। लेकिन हाल ही में आपने ह किस्सा सुना होगा कि एक नौजन बैंक अधिकारी घर में लड़खड़ाते हुए घुसता था और उसके मुंह से शराब की गंध भी नहीं आ रही होती थी। चिंतित पिता ने उसके पीछे जसूस लगाए तो पता चला कि यह युक दाई की दुकानों से कफ सीरप की दो शीशियां चालीस रुपए में खरीदता है और छह पैग का नशा करके घर पहुंचता है। जिन्हें पीना है, वे पीएंगे, जिन्हें जीना है, वे जिएगे। लेकिन जो चीज बहानों के पर्दे के पीछे छिपानी पड़ती है, उसमें अपने आप के नंगा हो जने का भय तो कहीं न कहीं होगा ही।

शराब की खपत में लगातार बढ़ोतरी

अपने देश में भले ही दो-तिहाई आबादी गरीबी की रेखा के आसपास रहती हो, लेकिन शराब की खपत में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। भारत के उद्योग और वाणिज्य संगठन ऐसोचैम के अनुसार शराब की खपत हर साल बाईस फीसदी की दर से बढ़ रही है और आराम से कहा ज सकता है कि २0१0 तक यह खपत नब्बे लाख लीटर हो जएगी। एसोचैम के अध्यक्ष वेणुगोपाल धूत हैं, जो वीडियोकॉन टी्वी बनाते हैं, उनके एक अध्ययन के अनुसार हमारे देश में हर साल बीयर के पच्चीस करोड़ केस बिकते हैं और हर केस में एक दजर्न बोतलें होती हैं। इसके अला व्हिस्की के सात करोड़ बीस लाख केस भी लोगों का गला तर करते हैं। इसमें बोतलों की संख्या के लिए १२ का गुणा आप अपने आप कर लीजिए।

हमारे देश में हर एक हजर व्यक्तियों में से सिर्फ १८0 को दोनों क्त भरपेट खाना मिलता है। लेकिन शराब की खपत हर 200 लोगों में एक बोतल रोज की है। चूंकि खेल आंकड़ों का है इसीलिए इसमें भूखे-नंगे लोग शामिल नहीं हैं। रना यह औसत हर बोतल पर आठ का रह जएगा। आशादियों के अनुसार निराशा की खबर यह है कि २0१0 तक देश में तीस साल से कम उम्र के लोग पैंसठ करोड़ तक होंगे और ये ही शराब के सबसे बड़े उपभोक्ता होंगे। सरकार भी कमाएगी और शराब बनाने और बेचने वाले भी। आखिर दस लाख लीटर उत्पादन क्षमता की फैक्टरी स्थापित करने पर ज्यादा से ज्यादा डेढ़ करोड़ रुपए खर्चा आता है। इससे ज्यादा कीमत की तो कारें बड़े उद्योगपति खरीद लेते हैं।

चाय और इस्पात के बाद शराब के कारोबार में दुनिया पर कब्ज करने ाले जिय माल्या ने ब्रिटेन की एक शराब कंपनी व्हाइट एंड मैके को सा अरब डॉलर में खरीदा। तर्क यह था कि उनके पास व्हिस्की का कोई ब्रांड नहीं था, जो कमी अब पूरी हो गई है। ैसे भी माल्या की यू बी बीरीज कंपनी दुनिया में शराब बनाने ाली तीसरी सबसे बड़ी कंपनी है और भारत व्हिस्की का दुनिया में सबसे बड़ा बाजर है। रही बात गरीबों की तो उनके लिए देसी शराब के ठेके हैं, जहां अंगूर, नारंगी, संतरा जसे रसीले नामों से सस्ती शराब बिकती है और जो यह भी नहीं खरीद सकते, वे अपने घरों में शराब बनाने की कोशिश करते हैं और साल में कम-से-कम दो-तीन बार तो ये खबरें आ ही जती हैं कि जहरीली शराब पीने से कितने लोग मारे गए। हमारे सस्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदौस को इन दिनों नैतिकता का दौरा पड़ा हुआ है और े सिगरेट और शराब दोनों पर फिल्मों से पाबंदी हटा देना चाहते हैं। उनसे एक ही साल किया ज सकता है कि सिगरेट पर तो वैधानिक चेतानी लिखी होती है कि इसे पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। लेकिन बीड़ी के बंडलों पर ऐसी कोई चेतानी नहीं होती। क्या भारत सरकार मानती है कि गरीबी कम करने का एक उपाय यह भी है कि बीड़ी पीने वाले गरीबों को कैंसर हो जाए?

फिर एक मासूम कश्मीरी और फिर तिहाड

फिर एक मासूम कश्मीरी और फिर तिहाड
परवेज राडू की दर्दनाक कहानी

आलोक तोमर
तीन साल से दिल्ली की तिहाड़ जेल में एक ऐसा कश्मीरी आतंकवादी कैद है, जिसके बारे में कश्मीर पुलिस ने लिख कर दिया है कि वह आतंकवादी नहीं है, दिल्ली पुलिस को झूठा बताते हुए स्पाइस जेट एयरवेज ने उसके यात्रा विवरण देते हुए साबित कर दिया है कि आजादपुर सब्जी मंडी से नहीं, बल्कि नई दिल्ली हवाई अड्डे से पकड़ा गया था।

दिल्ली पुलिस की स्पेशल सैल बेगुनाह कश्मीरियों को गिरफ्तार करके तालियां बजवाने और इनाम लूटने में कुख्यात हो चुकी है। उसकी ज्यादातर गिरफ्तारियां या तो निजामुद्दी रेलवे स्टेशन से होती है या आजादपुर सब्जी मंडी से। पुलिस के अनुसार परवेज अहमद राडू नामक इस युवक से तीन किलो आरडीएक्स और हवाला से आए दस लाख रुपए के अलावा कई संदिग्ध दस्तावेज मिले हैं, जिससे यह साबित होता है कि परवेज पाकिस्तानी इशारों पर दिल्ली में धमाके करने आया था।

जैश ए मोहम्मद के आतंकवादी बताए गए परवेज राडू के साथ अक्टूबर, 2006 में मैंने भी तिहाड़ जेल में दस दिन बिताए थे। उस समय परवेज ने अपनी पूरी कहानी बताते हुए एक लंबा पत्र भी लिखा था, जिसे मैंने केंद्रीय मंत्री और अब कश्मीर कांग्रेस के अध्यक्ष सैफुदीन सोज को दिया था। सोज ने आंसू बहाने का अभिनय तो किया था, लेकिन परवेज अब भी जेल में है। अब परवेज को न्याय दिलाने का मामले का का जिम्मा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने ले लिया है और उसने परवेज के पिता प्रोफेसर सनीउल्ला राडू के हवाले से जो सवाल पूछे हैं, उनका जवाब किसी के पास नहीं हैं।

पुणे विश्वविद्यालय के जीव विज्ञान विभाग में पीएचडी पूरी कर रहे परवेज ने मुझे बताया था कि उसके मोबाइल फोन पर कश्मीर से अक्सर फोन आते थे और इसी आधार पर उसे पकड़ा गया। उसने यह भी कहा था कि एक महीने तक उसे हिरासत में लिए जाने की पुष्टि भी नहीं की गई और उसके मोबाइल फोन पुलिसवाले रिचार्ज कराते रहे और घर पर राजी-खुशी की बातें करवाते रहे। इस दौरान उसकी बेतरह पिटाई की गई, करंट लगाया गया, उल्टा लटका कर पीटा गया और फिर देर रात एक मजिस्टे्रट के यहां पेश करके उसे कैद हुआ घोषित कर दिया गया। बहुत धूमधाम से हुई इस प्रेस कांफ्रेंस का लाइव प्रसारण जब परवेज के परिवार वालों ने देखा, तो वे दिल्ली भागे और उन्होंने पुलिस से अपने बेटे के निर्दोष होने की बात कही।

परवेज के हक में सारे सबूत हैं। कश्मीर के जिस सोपोर शहर का वह रहने वाला है, वहां के पुलिस अधीक्षक, वहां के निवासियों, नगरपालिक और सभी रेजिडेंट्स वैलफेयर एसोसिएशन और स्थानीय बार कांउसिल ने लिख कर दिया है कि परवेज के बारे में कभी आतंकवादियों से रिश्ते की बात सुनी ही नहीं गई और वह पढ़ने-लिखने वाला एक शर्मीला सा लड़का है। परवेज ने मुझे बताया था कि स्पाइस जेट की उड़ान से दिल्ली आ कर जब वह पुण्ो की दूसरी उड़ान पकड़ने जा रहा था, तो उसे स्पेशल सैल स्टाफ ने मामूली जांच-पड़ताल के नाम पर रोक लिया। उसके बाद से वह तिहाड़ जेल में ही है। बीच में कुछ समय उसे स्पेशल सैल द्वारा बनाए गए एक सेफ हाउस नाम के फ्लैट में रखा गया, जिसके बारे में परवेज सिर्फ इतना बता सका था कि वहां पड़ोस में कोई स्कूल था क्योंकि बच्चों और घंटियों की आवाज उसे सुनाई पड़ती थी।

परवेज ने बताया था कि स्पेशल सैल के लोधी रोड स्थित मुख्यालय में उसे हर तरह की यातना दी गई। परिवार वालों को उसी के मोबाइल से यह कहलवाया गया कि उसे एक अच्छी नौकरी मिल गई है और इसीलिए वह जल्दी ही सोपोर पहुंचेगा। इसी दौरान पुलिस की टीम उसे पुणे ले गई और पुलिस के पास पहले से आतंकवादियों के जो नंबर थे, उन पर देश-विदेश में बात करवाई गई। तब तक चूंकि वह आधिकारिक रूप से कैद नहीं था इसीलिए इस बातचीत को अब मुकदमे में उसके आतंकवादी संपर्कों के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। परवेज ने बताया था कि पुणे में एक होटल के कमरे में उसे बंद किया गया था और वही स्पेशल सैल के एक सब इंसपेक्टर एक बड़ा बैग ले कर आए थे, जिसमें दस लाख रुपए मौजूद थे। बाद में दिल्ली ला कर उसकी पिटाई करके पहले से लिखे हुए एक इकबालिया बयान पर उसके दस्तखत करवा लिए गए, जिसमें कहा गया था कि ये दस लाख रुपए उसे पाकिस्तानी आतंकवादियों ने दिल्ली में अपना अड्डा जमाने के लिए दिए थे।

जो अब अल्पसंख्यक आयोग कह रहा है, वही उस समय परवेज ने भी कहा था। उसने कहा था कि उसने आरडीएक्स कैसा होता है, यह आज तक देखा ही नहीं है और किसी भी आतंकवादी से उसका दूर-दूर तक कोई संपर्क नहीं है। परवेज के पिता प्रोफेसर समानुल्ला ने जब अल्पसंख्यक आयोग से शिकायत की, तो आयोग ने दिल्ली पुलिस से जवाब मांगा। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सैल के उपायुक्त आलोक कुमार ने इसी 12 फरवरी को आयोग को पत्र लिख कर बताया कि परवेज अहमद राडू उर्फ राजू जैश ए मोहम्मद का एक सदस्य है, जो हथियार, गोला-बारूद, विस्फोटक और पैसा आतंकवादियों के लिए लाने-ले जाने का काम किया करता था। परवेज के जो आका थे, आलोक कुमार के अनुसार उन लोगों ने ही उसे दिल्ली में अपना अड्डा बनाने के लिए कहा था और इसी के लिए वह दिल्ली आया था। 11 जनवरी, 2007 को परवेज अहमद के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई और अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश हरिशंकर शर्मा की अदालत में अभियोगों पर बहस चल रही है।

परवेज की आखिरी पेशी अदालत में 25 फरवरी को हुई थी और 26 तारीख को उससे मिल कर उसके प्रोफेसर पिता अल्पसंख्यक आयोग के पास पहुंचे थे। दिल्ली पुलिस खास तौर पर अपने पिछले पर्याप्त कुख्यात आयुक्त कृष्ण्ा कांत पॉल के जमाने में बहुत ज्यादा सक्रिय हो गई थी और दिल्ली की तिहाड़ जेल में आज भी पचास से ज्यादा ऐसे कश्मीरी कैदी हैं, जिनके खिलाफ कोई मामला मौजूद नहीं है। कश्मीर बार एसोसिएशन ने मांग की है कि इन सभी कैदियों को कश्मीर ले जाया जाए, जहां इन पर निष्पक्षता से मुकदमा चल सके। परवेज राडू का भाग्य कब और कब तक उसका साथ देगा, यह कोई नहीं जानता लेकिन यह सबको पता है कि दिल्ली पुलिस झूठ को सच और काले को सफेद करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ती।

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Filed under: Uncategorized — datelineindia @ 5:18 अपराह्न

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